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Tuesday 25 December 2018

वी नो एवरीथिंग

कभी कभी लगता है कि हमें अपने सपनों के हसीं अतीत में जीना चाहिए जहां के किस्सों को हम वास्तविकता में सुना सके जिससे राहत नसीब हो।
पर  इस वास्तविकता भरे जीवन में राहत हो ये ज़रूरी नहीं,ख़ासकर उनसे तो बिल्कुल भी नहीं जिन्हें बख़ूबी मालुम हो कि हां इसका मोह है हमसे,इसलिए भी शायद मेरा जी ऊब जाता है कि हमे चाहते हुए और ना चाहते हुए भी सिमटते रिश्तों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है,आख़िर क्यूं हमें ज़रूरत पड़ती है मशक्कत की वो भी उनके लिए जिनसे सिर्फ़ मोह ही है!
क्या मोह इतना ख़राब है?
कि जिनसे मोह है भी थोड़ा बहुत वो भी  अपनी ग़ैर स्थितियों के चलते अपनी गतिविधियों से बताने लगते है कि  उन्हें ये मोह रास नहीं आता,वाकई ज़माना प्रायोगिक हो रहा है,  और लोग प्रायोगिक हो रहे तो बुरा क्या! ऐसा तो बुरा कुछ भी नहीं लेकिन अगर जन्म से प्रायोगिक हो तो बिल्कुल भी बुरा नहीं पर अचानक से हो तो बुरा नहीं बहुत बुरा होता है।
और अगर ऐसा हो ही रहा तो फ़िर ये प्रायोगिकता सिर्फ़ एक के लिए नहीं सबके लिए होनी चाहिए, पर ऐसा भी तो नहीं होता ना!
बहुत साधारण सी बात बोल रहे हैं कि बहुत ज्यादा ख़राब लगता है इस ख़राब के लिए मेरे पास दोष जैसे शब्द नहीं होते,
लेकिन हां मन में बहुत सारे सवाल फटकने लगते है, जिनके जवाब भी एक वक्त बाद गूंगे लगते है, कैसे?
जैसे क्या बोल रही हो, मैं तो ऐसा करता नहीं, भला मैं क्यूं करूंगा ऐसा, मैं ये सोचकर नहीं बोला था, अरे यार क्या बोलूं, और अंत में तुम सही हो!
मेरा मकसद तुम्हारी ग़लतियां बताना नहीं, वो तुम्हें पता ही है यू नो एव्रीथिंग!
पर ऐसे व्यवहार से रिश्ते गढ़ते नहीं सिर्फ़ हाय हैलो तक ही सिमट कर रह जाते है, और कुछ नहीं
हम भी तो चाहते है कि तुम जैसे सबके सामने अच्छे से पेश आते हो, अपनत्व से बात करते हो वैसे हमसे भी  तो कर सकते हो, लेकिन तुम्हें पता हैना कि मोह है 

तो बस!!!!

विभा परमार

Sunday 2 December 2018

प्रेम

मैं तुम्हें बेहद करती हूं
या हद में करती हूं
प्रेम
इसका तो मुझे भी नहीं मालुम
और ना ही मुझे जानना ही उचित लगता है

बस लगता ये है कि
कैसे दो हृदय एक हुए जा रहे है
जो रच रहा है तुम्हें मेरे अंदर
इस रचना में मैं होकर भी
मैं नहीं हो पा रही हूं
बस मैं अवतरित हो रही हूं
क्षण क्षण तुममें!

तुम्हारी निगाहों भर से ही
मैं निखर जाती हूं
तुम्हारी आवाज़ भर से ही
मैं प्रफुल्लित हो जाती हूं
तुम्हारे पास आने भर से ही
मैं शीतल हो जाती हूं

मानों मिल रहे हो ऐसे
जैसे मिलते है
ओस और ओस की बूंद जैसे
सफेद चमक
शांति की चमक
फैला रही है प्रकाश प्रेम का
प्रकाश प्रेम का कर रहा है संतुष्ट
हम लोगों को
मुझे हर पहर
और तुम्हें
कुछ ही पहर!

पर हर पहर
और कुछ पहर में
हम रहते है साथ
ईमानदारी की डोर पकड़कर
ये डोर है थोड़ी शरारती
जो अपनी शरारतों से
कर देती है तंग
इस तंग में शामिल है
कुछ व्यस्तताएं
कुछ वक्त
और कुछ नीरसताएं

विभा परमार








Sunday 25 November 2018

मनावट

कभी कभी मनावट इतनी करीब लगने लगती है कि हम उसको शब्दों की डोर से परिभाषित नहीं कर सकते।
हां.... मन की मनावट जो हर किसी में नहीं विचरती, और ना ही हर किसी को विचरने का मौका देती है, बड़ी अजीब है ये मनावट इतनी कि मैं इसकी तुलना उस छोटे बच्चे से कर सकती हूं जिसे जो चीज़ पसंद आ जाए तो फिर ज़िद पकड़ कर बैठ जाता है और कहने लगता है चाहिए तो चाहिए बस, मैं कुछ नहीं जानता।
पर यहां ना ही हम बच्चे ही रहे और ना ही ऐसी कोई परिस्थिति ही आई कि चलो बच्चा बनकर एक बार ज़िद्द ही कर लें।
बात तो सिर्फ़ छोटी सी है कि मनावट हर किसी को लेकर नहीं बनता इस मनावट का बीज ज़मी में जम चुका और अब ,अब अंकुरित हो रहा है, इश्शशश ये क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये ज़मी ज़मी ना होती काश बंजर होती।
पर कहां ही ऐसा होता है, इंसान की ज़िंदगी बड़ी अजीब है यहां किसके साथ क्या घटित हो जाए किसी को कोई ख़बर नहीं, बस कुछ ऐसा ही हो रहा है यहां,मन तो लगा है बहुत लगा है मन पर जाने किसकी तलाश ,
हम वो सब भी करते है जिसका रत्ती भर भी शिकवा नहीं होता, शिकवा भी भला कैसा और किसके लिए आखिर होता तो मनावट की वजह से ही।
सोचती हूं हम इंसानों को चाहिए होता है इक इत्मिनान जो हमेशा हमारे अंदर शांति पैदा करे,  जो हमें सकारात्मक करे, हमारे पास से  गुज़रने वाले विचारों पर ताला लगाए ,पर ताला..... लग ही जाए ये भी ज़रूरी नहीं, हम ऐसे रस्तों पर चले जा रहे जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ रेगिस्तान है जो  हमारे तलवों को जलाए जा रहा है, रेगिस्तान का अंत है भी पर हम अंत की परवाह नहीं करते हमें परवाह है तलवों की.....
अनिश्चित ज़िंदगी में अनिश्चित लोगों की दस्तक को हम इतना महत्व कैसे दे देते है,  दस्तक सिर्फ़ दस्तक तक क्यूं नहीं सिमट पाती है ,ये कैसा सम्मोहन होता है जो एक पर अटक कर रह जाता है
इसमें दोष किसका मनावट का,मोह का, या हम लोगों का
हम चाहते भी है और नहीं भी चाहते , हम खुश भी रहना चाहते है और नहीं भी ,हम अकेले भी रहना चाहते है और नहीं भी
कितना कुछ प्रकट होता है और कितना कुछ अंदर रह जाता है ,जो अंदर रह जाता है वह पागल कुत्ते की तरह हमें काटने को दौड़ता है ,और हम भागने लगते है ,भागते रहते है जब तक कि हम दूर नहीं हो जाते पागल कुत्ते से, भागकर हम घर नहीं ढूंढते हम ढूंढते है क्षणिक ठिकाना वो भी ऐसा जहां अकेले रहा जा सके, घर ढूंढनेंगे तो प्रेम उत्पन्न होगा और प्रेम उत्पन्न होगा तो ज़िम्मेदारियों का बंधन होगा इसलिए हम भागते रहते है, पर  कभी कभी लगता है कि देना चाहिए खुद को आराम ,होना चाहिए घर, जहां इत्मिनान हो खुद के होने का पर!!!!

Saturday 3 November 2018

ज्वार धारा

मैं प्रेम में
पहले भी ज्वार थी
और अब भी ज्वार ही रही

और तुम,
तुम प्रेम में धारा!

धारा बन तुम अपनी गति में बहते रहते हो
धारा यानि कि तुम
किसी और से नहीं
बस अपनी दशा से प्रभावित हो

लेकिन ज्वार
इसका स्वभाव ही
बेपरवाह सा है
जिसमें  प्रतीक्षा ज्यादा है
जिसमें स्नेह ज्यादा है
जिसमें उबाल ज्यादा है

धारा में प्रेम है भी और नहीं भी
धारा में मैं हूं भी और नहीं भी
धारा में तुम हो भी और नहीं भी
मगर ये धारा  तुम हो ये ज्ञात है तुम्हें
और मैं ज्वार हूं  ये मुझे ज्ञात है

विभा परमार

Friday 19 October 2018

प्रेम में नदी होना

मैं दिल में पवित्र भाव लिए बैठी रहती हूं
जिसे कह सकते है हम लोग
"प्रेम"
ये भाव  मुझे बार- बार
तुममें विचरने को कहते है
इस विचरने की यात्रा में
  हम मिलते है
  घंटों साथ रहते है
  और और
  एक दूसरे निहारते है
  इस निहारने की प्रक्रिया में
  हम कब एक दूसरे के आलिंगन में आ जाते है
  ये तो हम भी नहीं जान पाते
  बस बोसा के प्रतिकार में बोसा
  घबराहट ऐसे होती है कि
  अपनी सांसों की आवाज़ भी बोलती नज़र आती है
  शब्द भी शरमा  जाते है
  मानों मुझसे बिना पूछे ही ले लिया हो प्रतिकार
  मैं देखती हूं तुम्हें और लगता है कि
  देखती ही रहूं।

  पर तुम ठहरे
  प्रेमी स्वभाव के
  कुछ वक्त लेकर
  मुस्कुराकर
  करने लगते हो
   प्रेम
  तुम्हारा स्पर्श
  तुम्हारे बोलने भर  से ही
  मैं नदी बन जाती हूं
  प्रेम में नदी
  समुद्र तुममें
  अन्ततः मिल जाती हूं
  तब नदी नदी नहीं
  वो समुद्र हो जाती है
  यानि मैं, मैं नहीं
  हम हो जाते है।

विभा परमार
 
 
 
 
 
 
 
 

Saturday 8 September 2018

आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती

हम एक दूसरे के हिस्से उतने ही आ पाते है जितना हम सिर्फ़ चाहते है, या फिर महज़ अपना अपना ध्यान बटाना चाहते है, कहने के लिए हम एक समय वक्त से भी ज्यादा वक्त एक दूसरे को दे देते है, कहने के लिए हमारा एक दुख उसका और उसका एक सुख हमारे दुख को ख़त्म करता नज़र आता है, हम इतना मशगूल हो जाते है आपस में कि हमारी एक एक गतिविधियां तक की ख़बर उसको हो जाती है, घर, परिवार और वहां घटने वाली घटनाएं भी अपनी सी प्रतीत होने लगती है, हम बात करते है ख़ूब बात करते है पहले हम पंसदीदा मुद्दों पर बोलते है, फिर धीरे धीरे व्यक्तिगत पर बोलते है और फिर व्यक्ति पर बोलना शुरू कर देते है, हम उससे जुड़ी हर चीज़ पर छानबीन करने लगते है, हम पहले से ज्यादा  ही ईमानदार हो जाते है मगर किसके लिए और कब तक?
हमारे बीच जानने की प्रक्रिया तक ही वक्त लगता है जानने के बाद हम बेपरवाह हो जाते है इतने कि हमें कुछ भी समझ नहीं आता,हमें लगने लगता है कि यही मानवीय व्यवहार है, यही होता आया है और आगे भी यही होगा पर वाकई  क्या ये सब सही है? हमें आखिर क्यूं नहीं हो पाती इन सबकी आदत, बदलाव की,व्यवहार की,
हम अपने अपने रिश्तों में ना जाने कौन सा दर्शन खोजने लगते है, हम क्यूं हमेशा बोलने तक ही बंध जाते है, और एक वक्त के बाद हम आपस में ही झिझक जाते है, बात करने से पहले ही अपने आप से प्रश्न करने लगते है बात करनी चाहिए या नहीं, इन्तज़ार करना चाहिए या नहीं, हाल लेना चाहिए या नहीं,कभी कभी इतने अद्भुत बन जाते है कि महसूस होने लगता है नहीं हम वो नहीं या ये वो नहीं, एक दूसरे को सही ठहराकर अपने आप से  घृणा  करने लगते है जबकि इन सबके बीच हमारी मनोदशा कुछ और ही होती है लेकिन कुछ कह पाना और कुछ सुन पाना बेवजह लगता है, हमें लगने लगता है कि हम शून्य और ठहर चुके है पर उस बीच ये भूल चुके होते है कि ये शून्यता और ठहराव हमारे अंदर आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती है!

विभा परमार

आदमखोर

कभी-कभी छोड़ देना चाहती हूं
उन लोगों
उन जगहों
उन बातों को
जिनके होने भर से असहनीय भार सा महसूस होता है
कभी-कभी उन सपनों को भूल जाना चाहती हूं.
जो सिर्फ़ भ्रम पैदा करते है
जिनका असर सुबह से दोपहर तक बरकरार रहता है

लगता है ,अब मैं इनके भार से दब चुकी हूं
झुक चुकी हूं
बिल्कुल वैसे
जैसे
एक उम्र के बाद बूढ़े की रीढ़ की हड्डी
झुक जाया करती है

इन वजहों से अब शब्द घुटने लगे है
और एक घुटन के बाद
आदमखोर का रूप रखकर
पहले से भरे पन्नों पर कहर बरपाते है
जिसका सन्नाटा कोरे पड़े पन्नों पर दिखाई पड़ता है।

विभा परमार

Sunday 2 September 2018

लूटेरा फ़िल्म

ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर आधारित फ़िल्म "लूटेरा" विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में बनी है।
क्या कहें दो दिन से इस फ़िल्म का खुमार चढ़ा हुआ है।
50वें दशक के समय को जीवंत करती लूटेरा फ़िल्म ने वाकई मेरे दिल में एक जगह बना ली है।
बाबा ,बेटी और वो लूटेरा!
फ़िल्म देखकर मन बहुत भारी हो गया, गला  भर आया देखकर कि हम प्रेम में इतना ऊपर उठ जाते है कि हमारे सामने हमारा प्रेम अगर खड़ा हो जाए दोषी रहते हुए, उसे हमारा सज़ा देना कूबूल होगा पर किसी और से ये उम्मीद नहीं  की जा सकती  कि वो उसे कष्ट पहुंचाए,
कुछ ऐसा ही रहा पाखी और वरूण का प्रेम
बहुत ही आराम लेता है  इनका प्रेम मानों इक लंबी गहरी नींद में चला गया हो ,ऐसा महसूस होता है कि,
दोनों एक स्टेज पर आकर अलग तो हो गए, मगर पता नहीं क्यूं एक दूसरे में हमेशा के लिए खो गए हो।
कैसा महसूस हुआ होगा जब पाखी को वरूण से प्रेम हुआ था  मानों एक ही बार में अपनी गतिविधियों से उस पर अपना अधिकार जमा रही हो ,बाइक और कार की टक्कर, सिर्फ़ टक्कर नहीं थी, ये तो शुरुआत थी उन दोनों के बीच की टक्कर की,
पाखी के घर में वरूण की दस्तक से ही पाखी कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ कह रही थी, रोज़ टकटकी लगाकर उसको देखना, फिर अचानक बाबा से बोलना पेंटिंग सीखना है, पेंटिंग वो भी वरूण से सीखना जिसको पेंटिंग का पी तक बनाना नहीं आता,
चित्रकारी की क्लास का पहला दिन पाखी का नर्वस होते हुए जाना कभी कभी देखकर  लगता कि थोड़ी सी चंचल है बस बाहर से ही गंभीर नज़र आती है, उधर वरूण का चित्रकारी को लेकर  डरते डरते पाखी से पूछना (बहुत फनी पत्तियां बनाई थी वरूण तुमने) जब हम प्रेम में होते है तो जाने क्यूं हम अपने प्रेमी को मना नहीं कर पाते आखिर वो क्या चीज़ें रह रह कर लौटती है कि देखने भर से ही,समय बिताने भर से ही, बात करने भर से सब कुछ नदी की तरह बहने लगता है,  और एक दिन वरूण चला जाता है, क्यूंकि वो तो एक लूटेरा था, पर हां वो लूटेरा सिर्फ़ लूटेरा नहीं प्रेमी भी था।
जब गया तो सब कुछ ले गया अपने साथ पाखी की मुस्कुराहट,आंखों की चमक, उसका श्रृंगार,  बाबा का जीवंत साथ (वरूण का ये रूप बाबा झेल नहीं पाए धोखाधड़ी उनकी मौत हो जाती है)
छोड़ गया बस चारों ओर बर्फ ही बर्फ, अब लगता है इन नज़रों को दिन में भी अंधेरा नज़र आता है, ये रोज़ होने वाली  सुबह भी शाम नज़र आती है। आत्मा 
भारी  और भरी है इतना कि अब आसूं बहते नहीं,
बाबा की मौत के बाद बस उनकी तोता वाली कहानी याद रहती है, नफ़रत ऐसी होती है कि जितना लिखती हूं उससे ज्यादा लिखकर फाड़कर ज़मी पर फेंक देती हूं,
अधिकतर अपनी  कुर्सी पर बैठी रहती हूं सब महसूस होता है ,सारे भाव  आते है पर मैं अडिग अपने एक भाव पर टिकी  हूं, उठकर दरीचों से ढांकती हूं उस पेड़ को जिस पर बर्फ़ जम रही है और पत्तें झर रहे है, अपनी ज़िदगी भी शायद ऐसी ही है , इन पत्तों की तरह रोज़ भाव झरते है सिवाय एक के ,बर्फीला आवरण ठहर गया तबसे।
होश में होने के बाद भी होश नहीं रहता, मानों अब घड़ी घड़ी मौत का इन्तज़ार!
तुम क्यूं लौट आए वरूण ,क्यूं ? ये देखने के लिए की मैं तुम्हारे बिना कैसे रहती हूं,  कैसे जीती हूं ,बोलो और अब तुम इतना प्रेम दिखाकर साबित क्या करना चाहते हो, कोई मतलब नहीं तुमसे पर पर जब तुमने कहां कि पुलिस को बुला सकती हो मुझे पकड़वा सकती हो तो फिर वो कौन सी चीज़ बाकी रह गई थी मुझमें कि मैं कई दफ़ा कोशिशों के बाद भी  पुलिस को नहीं बता पाई कि तुम यहीं मेरे पास ठहरे हुए हो!!!!! 
आखिर क्यूं
क्या  प्रेम  इतना हावी रहता है!!!!

Saturday 25 August 2018

प्रिय

जाने कब से
मैं और तुम
'हम' जैसे भारी शब्दों में तब्दील हो गए

शायद
इक अधूरी तबाही के बाद


सुनो प्रिये!
अब मैं 

दर-दर भटकना नहीं चाहती
उन प्रेत आत्माओं की तरह 

जो 
 इन्तज़ार, बेचैनी, कसक, टीस
 और
कुछ फ़रेबी ख़्वाबों को संजो कर

शमशान में हुआं हुआं करती फिरती है 

जिनकी हुआं में अटल रहता है 

विरह।

मैं विचरना चाहती हूं
निरंतर तुममें
तुम्हारी
प्रेम शिराओं में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे
पल-पल बहता है रक्त
शरीर की शिराओं में

विभा परमार

Tuesday 14 August 2018

जाने

जाने
मन में कैसी प्रलय चलती है
सुबह से दोपहर
दोपहर से सांझ
और सांझ से आधी रात
हां
क्यूंकि आधी रात के बाद तुम मेरे पास आ ही जाते हो
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए
और शायद मैं भी तुमको आने देती हूं!
तुम जगा कर घंटों
मेरी ज़ुल्फ़ों से खेलते रहते हो
बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह
और मैं तुम्हें देखकर लजाती रहती हूं
परवाज़ सुनो
तुम्हारे देखने भर से ही मैं
शिथिल हो जाती हूं
मेरी देह कुछ क्रिया नहीं करती
देह तुम्हारा ही  नाम जपती  है बार बार
रह- रह कर  मेरी मनोदशा को देखकर तुम
झठ से अपनी कसी बांहों में भर लेते हो
फिर महसूस होता है कि
तुमने अपनी बांहों में भरकर
मुझे मेरी देह से मुक्त कर दिया हो
उस वक्त प्रगाढ़ वासना में  लिप्त तुम
मुझे अनन्त चुंबन देते हो
मैं फिर लजा जाती हूं
बेसुध मन ,तन और आत्मा से!

मनोस्थितियां

कभी कभी स्थितियों से ज्यादा
मनोस्थितियां विचलित कर देती है और इसका विचलनपन धीरे धीरे अपने ग्रास में लेता रहता है, चौबीस घंटो का ये सफ़र कभी कभी व्यर्थ सा प्रतीत होता है, इसमें ना किसी से बात करने को जी चाहता और ना किसी को सुनने का ही मन रहता है। मन की मनोस्थिति एक एक पहर व्यथित करती है जाने ये  किस अवसाद की तरफ इशारा करती है!
ये विवश करती है मेरे जन्म को या यूं कहें निर्रथक जन्म को लेकर।  कि आखिर मेरा जन्म किसलिए हुआ ? सिर्फ़ उम्र काटने के लिए , रिश्ते बनाने के लिए, ज़िम्मेदारी उठाने के लिए, आखिर इस जन्म का सिर्फ़ यही उद्देश्य है?
मैं अब समझ नहीं पाती या मेरी इतनी समझ है ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं, खुद का होना  व्यर्थ का होना लगता है, अगर जन्म पर प्रश्नचिन्ह लग जाए तब आभास होता है कि बहुत बड़ा संकट है बहुत बड़ा, इससे निकलना ज़रूरी है वरना ये निरर्थकता कहीं मेरा कर्म तो नहीं बन जाएगा?
छटपटाहटें जिंदगीभर के लिए मेरे अंदर घर ना बना ले, मैं नकारात्मकताओं की झाड़ियों सी रोज़ ही घायल रहती हूं,
देखती हूं कि दुनायवी संसार में सबकुछ आसान कर दिया है   अच्छाई और बुराई जैसी शायद कोई चीज़ नहीं बची इन दोनों के बीच की रिक्तता में अच्छा और बुरा जैसा पानी बहने लगा है? आज कुछ भी घटित होता है और उस घटित घटनाओं से भाव भी कुछ भी लिख जाता है, चारों तरफ रोशनी ही रोशनी है इतनी कि जिसका सामना मेरी सायं सी आंखें भी नहीं कर पाती है, विचारों के भ्रमजाल में मैं और मेरा अस्तित्व फंसता जा रहा है, और ये अस्तित्व निकलना नहीं चाहता, क्या कर्म और क्या कुकर्म है ऐसी मनोस्थिति में मैं खुद का भी सामना करने में असहाय सा महसूस करती हूं!
ओ मेरे प्रभु जाने तुम किस दूरी पर हो जिसे शायद मैं दिखाई नहीं दे रही, मेरी ना की जाने वाली प्रार्थनाएं सुनाई नहीं दे रही है, मैंने भी अब थककर तुम्हें पुकारना बंद कर दिया है, बस शिथिलता से खुद को शांत करने की जुगत में जूझ रही हूं! इन सबके बावजूद भी कुछ और घटित होता है उससे मेरी समझ और अशांत और शांत सी हो जाती है
प्रेम! जाने इस विषय पर आकर मेरे अंदर उत्साह का ऐसा संचार होता है जिसमें सही और ग़लत जैसा कुछ महसूस नहीं हो पाता  क्षणिक तुम्हारा स्पर्श चरम स्पर्श मेरा रोम  रोम खोल देता है फिर दूसरे ही पल मेरा रोम रोम छिन्न भिन्न सा महसूस होने लगता है। वाकई मैं नहीं जानती प्रेम करने के क्या मायने होते है, मैं नहीं जानती प्रेम में क्या विवशताएं और क्या आज़ादी होती है, मैं नहीं जानती प्रेम की शुरुआत और प्रेम की चरमसीमा क्या होती है, मैं नहीं जानती कि प्रेम की संपूर्णता किसमें और किस इंसान में होती है, मैं नहीं जानती कि इसका भटकाव का खात्मा किस धुरी पर जाकर होता है, जानती हूं तो सिर्फ़ इतना कि प्रेम बस प्रेम होता है, प्रेम कोई विश्लेषण नहीं, प्रेम कोई कयास नहीं होता, लेकिन ये मन और मन की मनोस्थिति के बीच मैं फांस सा महसूस करती हूं जिसकी चुभन मुझे  अडिगता प्रदान नहीं करने दे रही है,  मैं डूब भी रही हूं और उभर भी रही हूं पर एक अटलता ,स्थिरता नहीं ला पा रही इस मायारूपी जीवन में!
व्याकुलताएं लौट लौट आती है, और विचार बदल बदल जाते है, मन में ग्लानि तो  नहीं लेकिन इसमें कुछ समझ नहीं आता
क्या ये सिर्फ़ विलासिता है? क्या दोनों के सपने का असर है जिसमें तुम और मैं सिर्फ़ एक दूसरे को धारण करने की कोशिश करते है? और कुछ नहीं
तुम संभोग और मैं प्रेम की तरफ अग्रसर होते है, हम लंबे वक्त में भी एक पल के लिए एक दूसरे को धारण करने का विचार कर लेते है!  उसमें तुम और मैं अलग अलग नहीं एक होते है तुम्हारे और मेरे हाथ,तुम्हारे पैर और मेरे पैर, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी उत्तेजना और मेरी उत्तेजना, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी छाती और मेरी छाती, तुम्हारा मन और मेरा मन पर आत्मा आत्मा इसका मिलन इसका वरण आखिर क्यूं असफल हो जाता है? मैं तुम्हारे पास आते आते ,तुममें समाते समाते कहां चली जाती हूं? मेरी मनोस्थिति आखिर क्यूं नहीं साथ देती और मैं सायं सायं सी हूंकने लगती हूं ,मैं खोजने लगती हूं संभोग में भी तुममें अपने लिए प्रेम, सोचने लगती हूं उन भगवानों को जिनकी भार्या रहती हैं सदा उनकी बायीं तरफ,  इसमें (#अग्नि से सीता तक की लाइन योगेश्वर सर की ली)जैसे अग्नि के साथ स्वाहा,कामदेव के साथ रति, शिव के साथ पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता!
इतना सोचते ही हो जाती हूं तुमसे और तुम्हारे जिस्म से दूर, लेकिन दूर होने भर से मेरी आसक्ति तुममें बनी रहती है, और वापस विचरनें लगती हूं अपनी मनोस्थितियों में।

Monday 13 August 2018

कमरा


मैं देखती हूं उस कमरे को जिस पर लगा है बरसों से ताला आज मन में आया कि इस ताले को कुछ देर आराम दिया जाए, मैंने ताले को खोलकर दरवाज़े को धक्का दिया और देखा ,उस कमरे को जिसमें एक बैड है उस पर अबतक चादर बिछी हुई है, और हां कोई सिलवट भी नहीं, एक अलमारी भी है  जिस पर आईना लगा हुआ है, आईना साफ़ नहीं है धुंधला चुका है धूल से, कमरे में पुराने गानों की गुनगुनाहट नहीं होती अब सायं सायं की आवाज़ें गूंजती है, दीमकें खा रही है धीरे धीरे फर्नीचर,
हां एक सोफ़ा भी है जिस पर मैं अक्सर गुस्सा होकर बैठ जाया करती थी और कहती थी गुस्से में कि मैं नहीं सिखला सकती हूं कि प्रेम कैसे होता है?और ना ही बतला सकती हूं कि प्रेम आखिर होता क्या है, प्रेम का उत्सव कैसे मनाया जाता है,  बस लगता था कि  प्रेम क्या, कैसे  और मनाने के बीच की एक डोर है, जिसने बांध रखा है हम लोगों को।
मैं फिर देखती हूं उस कमरे में रखी हर छोटी छोटी चीज़ को जिनका साथ सदियों से तुम्हारे साथ चला आ रहा हो, पुरानी डायरी,पुराने पेन जिसकी इंक लगभग ख़त्म हो चुकी हो, आईना, फर्नीचर, अलमारी में टंगे हैंगर, ये सब, ये सब  तुम्हारे साथ पहले भी थे और अब भी, इनका साथ बिल्कुल वैसा ही रहा जैसे एक हाथ का दूसरे हाथ का साथ, ये बोल नहीं सकते, पर साथ निभा जाते है, और मैं! बस मैं ही रही, मेरी दस्तक से ये  सब कुछ देर के लिए सकपकाए असहज ज़रूर हुए पर फिर सब सहजता में बदल गया।जाने  मैं से हम कब बन गए ये तो हममें से किसी को भी  नहीं मालूम!
तुम्हारा जाना! अचानक से जाना! उफ्फ विचलित होने के साथ आजीवन के लिए मुझे और इन सबको तन्हा छोड़ गया, देखो! अब तुम भी देखो इस कमरे में मौजूद हो पर इन सबकी तरह बोल नहीं पाते, तुम्हारी आहटें जाने कब से नहीं सुनी, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी देह की गंध ये सब स्मृति में बंद है, मेरी हिम्मत नहीं होती इस कमरे में आने की पर ,पर मैं क्या करूँ ये कमरा कमरा नहीं खाईं है प्रेम की जिसमें हम दोनों डूबे रहे,साथ ही ये सब भी ,देखो ना!
अब तुम भी इस कमरे में मौजूद हो बैड के पास रखी मुस्कुराती फोटो में!
शेष फिर!

Sunday 22 July 2018

लौट आयोगे

बहुत दर्दनाक होते है वो दिन जो ढलकर  भी नहीं ढलते,जिनके घाव के दाग़ कभी न कभी दिख ही जाते है।
पता नहीं मेरा बोलना कहा तक ठीक है ये, कि अब हम दोनों में मैं की दीवार खड़ी हो चुकी है तुम दूर जा रहे हो धुंधले होते जा रहे और तुम्हारी सोच भी धुंधली हो रही है मेरे प्रति,अब तुम्हारा मेरे साथ रहना बिल्कुल वैसा ही है जैसे आग और पानी का साथ। आग और पानी कभी एक नहीं हो सकते। जब आग तब पानी नहीं और जब पानी तब आग नहीं।
मेरा दिमाग तुमको लेकर कोई ख्वाब नहीं बुनता लेकिन ये दिल बिखरे ख्वाबों को रोज़ अपने आसुओं से सिलता है, और ये सिलते ख्वाब तुमको दिखते नहीं क्यूंकि तुम अपनी बनाई बेफ्रिकी में जिये जा रहे हो, अब तुम अंजान हो गए हो, अजनबी बन गए हो, और मैं हूँ कि ना बेफ्रिकी में ही जी पाती और ना अजनबी ही हो पाती हूँ,
क्या तुम इतने खास हो?
अपने अंदर  दिल के सिले कोने में मोहब्बत की मौत का जश्न मनता है पर सच कहूँ ये जश्न इक क्षण भर के लिए भी सुकून पैदा नहीं करता  बस पैदा करता है तो छटपटाहट।  कई दफ़ा ऐसा हुआ कि मैंने खुद को दुतकारा, तुम पर मन ने तंज कसे पर ये सब कोई असर नहीं कर सकी और मैं मोहब्बत के दलदल में फंसती चली गई।
बहुत आवाज़ें दी पहले मन ने,आत्मा ने, जुब़ान ने पर तुमने सुना सिर्फ़ सुना, तुमने दलदल से निकाला नहीं, कई संदेशों की पोटली भिजवाई इन हवाओं, सूरज, चांद, बारिशों के माध्यम से
बदले में तुमने ख़ामोशी,अहम, दोषों की फेहरिस्त भेज दी
सुन्न खड़ी मैं मोहब्बत में मैली हो जाने के बाद भी, बाट देखती हूँ, कि एक दिन तुम ज़रूर लौट आयोगे!

विभा परमार

जाने क्यूं

तुम्हारे हिस्से तुम तो आ गए
मगर
मेरे हिस्से में मैं ना आ सकी
जाने क्यूँ!
सोचती हूँ कि
तुम्हारे प्रेम की धूल ने मुझे तो ढक दिया पर शायद ये तुम्हें ना ढक सकी
तुमने
इसे वक्त रहते झाड़ दिया
अपनी विवशताओं  के चलते
तुम्हारा यूं ही झाड़ना
मुझे खुद से अलग करना ही तो था
ये अलगाव की रेखा
मेरे लिए बिल्कुल वैसी ही है
जैसे शरीर के एक अंग का कट जाना
पर तुम्हारे लिए तो
ये आज़ादी हैना!
विभा परमार

बाकी रह जाता है

कितना कुछ बाकी रह जाता है कहने को,
कितना कुछ बाकी रह जाता है सुनने को
क्या तुम्हें ये सब कुछ भ्रम या क्षणभंगुर लगता है?
कितनी आसानी से तुमने अपनी बात कहकर ख़त्म कर  दी वैसे ही बिल्कुल जैसे बिन पानी के फूल मुरझा जाते है,उन फूलों का  मुरझाना  महज़ मुरझाना नहीं होता है उनकी धीरे धीरे खूबसूरती का खत्म होना, उनका तड़पना, उनका इन्तज़ार करना कुछ ऐसा ही हुआ प्रेम के साथ जो बेइंतहा खूबसूरत, बेहिसाब इश्क करना और फिर चंद शब्दों की आड़ लेकर सबकुछ खत्म कर देना!
अजीब  होता है और हैरानगी भरा भी कि प्रेम में पहले दो से एक हो जाना फिर एक होकर अलग होना ,बड़ा कष्टदायक होता है, ऐसा लगता है ये कष्ट पूरे शरीर में बह रहा हो और आत्मा घायल पड़ी हो, जिसके घाव सिर्फ़ सहने वालो को पता होते है! धीरे धीरे वक्त की धारा में हम बहते ज़रूर है, हम वो हर काम करते है जिससे हमें खुशी मिलती हो मगर तसल्ली नहीं, तसल्ली तो कबसे बेचैन पड़ी है दिल के इक कोने में जिसमें ज़मी है धूल हमारे अभिमान, मय, गलतफहमी की और हम इसको  कभी दूर करने की कोशिश भी नहीं करते
क्यूँ आखिर क्यूँ ?
हमें रोना मंज़ूर होता है, हमें अकेले रहना मंज़ूर होता  है, हमें खुद को सही ठहराना मंज़ूर होता है  मगर दो मिनट शांति से बात करना मंज़ूर नहीं होता है
उसी कोने में यादों के कण ठिठुरते रहते है कभी कभी हम नकार देते है महज़ इन्हे बेफिज़ूल की बंदिशे कहकर!
सच में अगर ये सच्चाई है प्रेम की तो इससे अच्छे भ्रम है,इससे अच्छे  ख्वाब है
जो होते ज़रूर क्षणिक है  मगर आहत नहीं करते, जिनके टूटने से दर्द नहीं होता और  मुस्कुराकर इनको साझा करते है
पर उनका क्या
जो होकर भी साथ नहीं होते, बस अपनी बात कहकर अपना एक काम ख़त्म कर देते है सिर्फ़ काम!

विभा परमार