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Saturday 8 September 2018

आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती

हम एक दूसरे के हिस्से उतने ही आ पाते है जितना हम सिर्फ़ चाहते है, या फिर महज़ अपना अपना ध्यान बटाना चाहते है, कहने के लिए हम एक समय वक्त से भी ज्यादा वक्त एक दूसरे को दे देते है, कहने के लिए हमारा एक दुख उसका और उसका एक सुख हमारे दुख को ख़त्म करता नज़र आता है, हम इतना मशगूल हो जाते है आपस में कि हमारी एक एक गतिविधियां तक की ख़बर उसको हो जाती है, घर, परिवार और वहां घटने वाली घटनाएं भी अपनी सी प्रतीत होने लगती है, हम बात करते है ख़ूब बात करते है पहले हम पंसदीदा मुद्दों पर बोलते है, फिर धीरे धीरे व्यक्तिगत पर बोलते है और फिर व्यक्ति पर बोलना शुरू कर देते है, हम उससे जुड़ी हर चीज़ पर छानबीन करने लगते है, हम पहले से ज्यादा  ही ईमानदार हो जाते है मगर किसके लिए और कब तक?
हमारे बीच जानने की प्रक्रिया तक ही वक्त लगता है जानने के बाद हम बेपरवाह हो जाते है इतने कि हमें कुछ भी समझ नहीं आता,हमें लगने लगता है कि यही मानवीय व्यवहार है, यही होता आया है और आगे भी यही होगा पर वाकई  क्या ये सब सही है? हमें आखिर क्यूं नहीं हो पाती इन सबकी आदत, बदलाव की,व्यवहार की,
हम अपने अपने रिश्तों में ना जाने कौन सा दर्शन खोजने लगते है, हम क्यूं हमेशा बोलने तक ही बंध जाते है, और एक वक्त के बाद हम आपस में ही झिझक जाते है, बात करने से पहले ही अपने आप से प्रश्न करने लगते है बात करनी चाहिए या नहीं, इन्तज़ार करना चाहिए या नहीं, हाल लेना चाहिए या नहीं,कभी कभी इतने अद्भुत बन जाते है कि महसूस होने लगता है नहीं हम वो नहीं या ये वो नहीं, एक दूसरे को सही ठहराकर अपने आप से  घृणा  करने लगते है जबकि इन सबके बीच हमारी मनोदशा कुछ और ही होती है लेकिन कुछ कह पाना और कुछ सुन पाना बेवजह लगता है, हमें लगने लगता है कि हम शून्य और ठहर चुके है पर उस बीच ये भूल चुके होते है कि ये शून्यता और ठहराव हमारे अंदर आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती है!

विभा परमार

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