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Sunday 25 November 2018

मनावट

कभी कभी मनावट इतनी करीब लगने लगती है कि हम उसको शब्दों की डोर से परिभाषित नहीं कर सकते।
हां.... मन की मनावट जो हर किसी में नहीं विचरती, और ना ही हर किसी को विचरने का मौका देती है, बड़ी अजीब है ये मनावट इतनी कि मैं इसकी तुलना उस छोटे बच्चे से कर सकती हूं जिसे जो चीज़ पसंद आ जाए तो फिर ज़िद पकड़ कर बैठ जाता है और कहने लगता है चाहिए तो चाहिए बस, मैं कुछ नहीं जानता।
पर यहां ना ही हम बच्चे ही रहे और ना ही ऐसी कोई परिस्थिति ही आई कि चलो बच्चा बनकर एक बार ज़िद्द ही कर लें।
बात तो सिर्फ़ छोटी सी है कि मनावट हर किसी को लेकर नहीं बनता इस मनावट का बीज ज़मी में जम चुका और अब ,अब अंकुरित हो रहा है, इश्शशश ये क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये ज़मी ज़मी ना होती काश बंजर होती।
पर कहां ही ऐसा होता है, इंसान की ज़िंदगी बड़ी अजीब है यहां किसके साथ क्या घटित हो जाए किसी को कोई ख़बर नहीं, बस कुछ ऐसा ही हो रहा है यहां,मन तो लगा है बहुत लगा है मन पर जाने किसकी तलाश ,
हम वो सब भी करते है जिसका रत्ती भर भी शिकवा नहीं होता, शिकवा भी भला कैसा और किसके लिए आखिर होता तो मनावट की वजह से ही।
सोचती हूं हम इंसानों को चाहिए होता है इक इत्मिनान जो हमेशा हमारे अंदर शांति पैदा करे,  जो हमें सकारात्मक करे, हमारे पास से  गुज़रने वाले विचारों पर ताला लगाए ,पर ताला..... लग ही जाए ये भी ज़रूरी नहीं, हम ऐसे रस्तों पर चले जा रहे जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ रेगिस्तान है जो  हमारे तलवों को जलाए जा रहा है, रेगिस्तान का अंत है भी पर हम अंत की परवाह नहीं करते हमें परवाह है तलवों की.....
अनिश्चित ज़िंदगी में अनिश्चित लोगों की दस्तक को हम इतना महत्व कैसे दे देते है,  दस्तक सिर्फ़ दस्तक तक क्यूं नहीं सिमट पाती है ,ये कैसा सम्मोहन होता है जो एक पर अटक कर रह जाता है
इसमें दोष किसका मनावट का,मोह का, या हम लोगों का
हम चाहते भी है और नहीं भी चाहते , हम खुश भी रहना चाहते है और नहीं भी ,हम अकेले भी रहना चाहते है और नहीं भी
कितना कुछ प्रकट होता है और कितना कुछ अंदर रह जाता है ,जो अंदर रह जाता है वह पागल कुत्ते की तरह हमें काटने को दौड़ता है ,और हम भागने लगते है ,भागते रहते है जब तक कि हम दूर नहीं हो जाते पागल कुत्ते से, भागकर हम घर नहीं ढूंढते हम ढूंढते है क्षणिक ठिकाना वो भी ऐसा जहां अकेले रहा जा सके, घर ढूंढनेंगे तो प्रेम उत्पन्न होगा और प्रेम उत्पन्न होगा तो ज़िम्मेदारियों का बंधन होगा इसलिए हम भागते रहते है, पर  कभी कभी लगता है कि देना चाहिए खुद को आराम ,होना चाहिए घर, जहां इत्मिनान हो खुद के होने का पर!!!!

Saturday 3 November 2018

ज्वार धारा

मैं प्रेम में
पहले भी ज्वार थी
और अब भी ज्वार ही रही

और तुम,
तुम प्रेम में धारा!

धारा बन तुम अपनी गति में बहते रहते हो
धारा यानि कि तुम
किसी और से नहीं
बस अपनी दशा से प्रभावित हो

लेकिन ज्वार
इसका स्वभाव ही
बेपरवाह सा है
जिसमें  प्रतीक्षा ज्यादा है
जिसमें स्नेह ज्यादा है
जिसमें उबाल ज्यादा है

धारा में प्रेम है भी और नहीं भी
धारा में मैं हूं भी और नहीं भी
धारा में तुम हो भी और नहीं भी
मगर ये धारा  तुम हो ये ज्ञात है तुम्हें
और मैं ज्वार हूं  ये मुझे ज्ञात है

विभा परमार