tag:blogger.com,1999:blog-1969914770629738992024-02-06T21:33:37.417-08:00कुछ ख्वाहिशें मेरी भी... हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पर दम निकले,बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले... विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.comBlogger105125tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-42532284856540468662022-03-13T05:50:00.003-07:002022-03-13T05:50:34.363-07:00चुना<p> वे कठिनाईयां बतलाते रहे ज़िन्दगी की ,ज़रूरतों की </p><p>उन्होंने घूंट पिए शराब के और कश भी लगाए सिगरेट के</p><p>उस वक्त गुस्सा किया परिवार पर लगे सामाजिक बंधनों का </p><p>कुछ वक्त जीभर कर गालियां भी दी उन दोस्तों को जो कक्षा में उनसे पीछे रहा करते थे</p><p>उन्होंने भावुक होकर बतलाया समाज में घटित घटनाओं को </p><p>वे कई बार छलके भी उन फिल्मों को देखकर जिसमें बात कही गई सही और ग़लत की </p><p> आसान सी कुछ बातें जिसमें सिर्फ़ ज़िंदगी भर साथ चलने को कहा उन्हें दकियानूसी लगी </p><p>उन्होंने सलाहें दी ,झूठ के खिलाफ लड़ने की </p><p>सच के साथ रहने की </p><p>मुझमे कठिनाई भरकर </p><p> उन्होंने हमसफ़र नहीं बस हमबिस्तर होना चुना!</p><p>विभा परमार</p><p>छायाचित्र- गूगल से जिसने भी बनाया कमाल बनाया (नाम मालूम नहीं हमें)</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi4OqVApt3yTLXAiNZ1c4E47mqY7ia0Wc_8HNmoBcjJ1OtqFhS9ALJUylmqlICfQFIMJ2vCnMVPYzuil2mP6xm_ee-tYO9tWa2vOql8VkMfusa58HxnooLeW339-5NGRVWhZlmMorOuDHzYT5vyaoDSk4keg7sRxQEA9q_6cOAIJSEmpKlQAoo6Gs1j=s960" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="931" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi4OqVApt3yTLXAiNZ1c4E47mqY7ia0Wc_8HNmoBcjJ1OtqFhS9ALJUylmqlICfQFIMJ2vCnMVPYzuil2mP6xm_ee-tYO9tWa2vOql8VkMfusa58HxnooLeW339-5NGRVWhZlmMorOuDHzYT5vyaoDSk4keg7sRxQEA9q_6cOAIJSEmpKlQAoo6Gs1j=s320" width="310" /></a></div><br /><p></p>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-82906648577205506242022-03-09T05:05:00.002-08:002022-03-09T05:05:34.542-08:00मन का मन <p> <span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">मैं इक ऐसी दुनिया में चली गई थी जहां वो सबकुछ था जिसके बारे में मैंने अक्सर फ़िल्मों ,कहानियों किस्सों में देखा या पढ़ा था , देख या पढ़कर शरीर में झुरझुरी तो ज़रूर उठती थी मगर ऐसा कभी सोचा नहीं था कि ऐसे फ़िल्मी सीन को एकदफ़ा मैं भी जिऊंगी।</span></p><p><span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhxJFxxL9hjR64PriMuNpim5Q31hpFyIZNm-bj0e6LOfrmAHMjwcW3QNNBCuItiNRGEtYX1YuZ5qcUh00dbjt1u2witH-q9oRVIOvmKEnSN29VTfBl1jlU8w_NToI7pdx-IL2T2JBgChSB3z7TrX6595EU8vgYD9Lad-OqbynXV1w2vOzkmxO1iyh4m=s2592" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2592" data-original-width="1458" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhxJFxxL9hjR64PriMuNpim5Q31hpFyIZNm-bj0e6LOfrmAHMjwcW3QNNBCuItiNRGEtYX1YuZ5qcUh00dbjt1u2witH-q9oRVIOvmKEnSN29VTfBl1jlU8w_NToI7pdx-IL2T2JBgChSB3z7TrX6595EU8vgYD9Lad-OqbynXV1w2vOzkmxO1iyh4m=s320" width="180" /></a></div><br />सच कहती हूं मरे हुए लोगों की कविताओं ,कहानियों, विरह को पढ़ने वाली लड़की के हिस्से भी इतने हसीन किस्से दर्ज़ होगें ये तो ज़रूर ईश्वर की दी अनगिनत नेकियों में से ही एक है,जिसे मैंने ज़बरदस्ती नहीं रचा ,ये तो सबकुछ अपनेआप से घट रहा था <p></p><div class="mail-message expanded" id="m#msg-a:r-3635595459914896977" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images " style="margin: 16px 0px; overflow-wrap: break-word; user-select: auto; width: 328px;"><div class="clear"><div dir="auto"><div dir="auto"> वो कहते हैना इंप्रोवाईजे़शन जिसमें प्रकृति ,जगह ,पेड़ पौधे ,घना अंधेरा ,स्थितियां इंप्रोवाईज़ कर रही थीं।</div><div dir="auto"> तुम तो फ़िल्में भी बनाते हो तो इस पर भी कोई फ़िल्म बनाओ ना ,सबकुछ तो था इसमें जो एक फ़िल्म में चाहिए रहता है वरना ये सब तो ज़बरदस्ती क्रिएट करना पड़ता है, ऐसे दृश्यों को डालना पड़ता है जिससे फ़िल्म आगे बढ़े </div><div dir="auto">एक अंजाना लड़का और एक अजनबी लड़की जिसके बीच सिर्फ़ साथ सोने और साथ में खाने तक का ही संबंध था और कुछ-कुछ मेरी टूटी फूटी बातें उस पर तुम्हारे जवाब।</div><div dir="auto">कितना अजीब होता हैना कि बिना संबंध के भी एक संबंध ऐसा जुड़ जाता है जिसमें हम बहुत घनिष्ठ नहीं होते मगर एक ख़ामोश निश्चलता जुड़ ही जाती है </div><div dir="auto">जब हम वापस लौट रहे थे तब वे सारे दृश्य सामने उभर रहे थे और मेरा इतना मन था कि उनके बारे में तुमसे कहूं लेकिन उस वक्त कई झेंपो ने मुझे रोक रखा था!</div><div dir="auto"> अच्छा क्या तुम भी सोचते हो ऐसा कुछ </div><div dir="auto"> जैसे जब तुम पहली दफ़ा सोने के लिए आए थे ना </div><div dir="auto"> तब हम रातभर सोए नहीं थे इक अलग बेचैनी चल रही थी मेरे मन में ,फ़िर पता नहीं कैसे ये बेचैनी विनम्र आत्मीयता में तब्दील हो गई</div><div dir="auto"> उस वक्त को सोचकर मेरे मन में सवाल आया कि तुमसे पूछूं और जानूं कि जितना असहज हमको लगा क्या तुमको भी लगा था ? </div><div dir="auto"> आख़िर तुम्हारे मन में भी तो कुछ चलता ही होगा ना ?</div><div dir="auto">अगर काम को थोड़ा साइड रख दिया जाए ,</div><div dir="auto">वैसे इस फ़िल्म को इतना भी अधूरा नहीं होना चाहिए </div><div dir="auto">अब सबकुछ तो पन्नों पर नहीं उतारा जा सकता है </div><div dir="auto"> कुछ को सिर्फ़ ऊर्जा और स्थितियों से महसूस किया जा सकता है</div><div dir="auto"> तुम्हें याद है भी कि नहीं मगर तुम अपनी चिढ़न ,बातें गुस्सा सब बोल जाते थे और हम बस देखते रहते और सोचते कि तुम्हें वाकई सुना जाना चाहिए, कितना कुछ बाकी रह जाता है मन में ,(लेकिन उस पर भी तुम्हारे अपने लॉजिक होंगे)</div><div dir="auto"> अच्छा सुनो ये सब बोलकर हम तुमपे ट्राए नहीं मार रहे </div><div dir="auto"> पर हम वाकई चाहते हैं कि तुमसे पूछे कि तुमने खाना खाया, हालांकि तुम ख़ुद से सबकुछ कर ही लेते हो, और इन सबके बीच तुम क्या कहते हो कि अफेक्शन ना हो ,दूर रहो मुझसे ,मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई नया इंसान नहीं चाहिए</div><div dir="auto"> मतलब इतना सिक्योर करके ख़ुद को चला रहे मानों सबकुछ पहले से जानते हैं कि हमारे बीच सिर्फ़ यही अनहोनी होनी है ,जबकि इसके उलट भी तो सोचा जा सकता है कि हम लोग बेहतर साबित हों </div><div dir="auto"> मगर कहां इतना समय ही है ऐसा कुछ उलट सोचने के लिए</div><div dir="auto">-विभा परमार</div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"> </div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"><br /></div></div></div></div><div class="mail-message-footer spacer collapsible" style="height: 0px;"></div></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-18705574469016722032021-09-28T12:09:00.003-07:002021-09-28T12:09:42.171-07:00वाकया<p> मुझे याद नहीं कि आख़िरी बार मेरे सूखे होंठ कब मुस्कुराए थे शायद मैं किसी तृष्णा से सदा भरी रही जिससे होंठ मुस्कुरा नहीं पाए ,जबकि मुस्कुराहट की हंसी को मैं भी महसूस करना चाहती थी लेकिन मेरी ये चाहना इक श्राप रही! तुम्हें पता है इन दिनों मैं घर में उगाए गमलों में छोटे-छोटे पौधों के दुखों को सुनती हूं, और वो चिड़िया जिसने अभी -अभी अपना नया घोंसला बनाया है घर के छज्जे पर उसके गीतों को गुनगुनाती हूं उसके गीतों में उसके पुराने घोंसले और उसके अण्डों के फूटने का दर्द साफ़ झलकता है, उस वक्त मैं समझ नहीं पाती कि आख़िर कैसे उसे उसके खोए बच्चों ,उजड़े घोंसले का सांत्वना दूं, वो चिड़िया अपने विरह गीतों में मेरे सूखे होठों के बारे में पूछती है और मैं उसके पूछने को वहीं छोड़कर अपने कमरे में दौड़ आती हूं,ख़ुद को आईने में देखती हूं और अभिनय करती हूं मुस्कुराने का कि ऐसी कोई तृष्णा ,ऐसी कोई इच्छा ,ऐसा कोई श्राप नहीं जिसने मुझे घेर रखा हो !पर कहीं न कहीं ये सब भी सच ही लगता और कभी कभी ये भी लगने लगता है कि दुख की अदृश्य चादर को ओढ़े रहने से मुझे ये सुख , ये मुस्कुराहटें सब क्षणभंगुर ही लगते हैं, और ये उदासी मृत्यु तक की यात्रा की साथी!</p><p>विभा परमार</p><div><br /></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-58515831421877913622021-07-31T04:46:00.001-07:002021-07-31T04:46:28.053-07:00लेख<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9kdVCE9xs3Bb5wBSoi_VCZ62o6ASJYUTOH4_-80q7HLbKBb8-8a9Q_vaJ6nomZTN5ic_eA5ayd9z05r-48DWgj4W27djcp123OkZIH6zszJ1aCkfHRw6kb3eAlKu5zwR-wWchCGIdY8Y/s1600/1627731955378575-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div><b>ख़ुद की महत्ता को समझें</b></div><div><b><br></b></div><div><b>सबको जल्दी है ,घर से जाने की जल्दी ,घर पर आने की जल्दी, दूसरों को प्यार करने की जल्दी ,नई नई तकनीक सीखने की जल्दी, और फ़िर उन सबसे ऊबने की जल्दी, रिश्ते बनाने की जल्दी और जब समझ ना आए तो उन्हें छोड़ने की जल्दी, हैना इस जल्दी में खुद को पाने की कोई जल्दी नहीं !</b></div><div><b> सोचती हूं कि हम सब ज़िंदगी में वो सबकुछ पाना चाहते हैं जिसकी हम ख़्वाहिश रखते हैं ,जिसके हम ख़्वाब देखते हैं और यकीन मानिए वो पूरे भी होते हैं लेकिन फ़िर भी ,फ़िर भी आंतरिक तौर पर कहीं कुछ खालीपन सा,कुछ तन्हा सा लगता है। ऐसा अक्सर महसूस होता है ,मैंने कुछ ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने सबकुछ कमाया धन-दौलत ,प्रेम, अच्छी लाईफस्टाइल, सुरक्षित भविष्य फ़िर भी उनको कुछ समय बाद उदास पाया,आख़िर क्या वजह है उनकी उदासी की कुछ और ख़्वाहिशें ,कुछ और ख़्वाब जिन्हें वे पूरा नहीं कर पाए वह तो नहीं, बिल्कुल नहीं उनकी उदासी या यूं कहें आज अधिकांशतः सबकी उदासी का मजबूत कारण है ख़ुद को आंतरिक तौर से निग्लेक्ट करना ,हम ज़िंदगी की रेस में तो दौड़ते चले जा रहें हैं मगर अपने अंदर झांकते तक नहीं, हम चेहरे,बोलने के लहज़े बॉडी लैंग्वेज ,अपने एक्सेंट पर तो विशेष ध्यान देते हैं मगर आंतरिक मन /आत्मा को तो पूछते तक नहीं और फ़िर जब सबकुछ मिलने के बाद भी शांति नहीं मिलती तो बेचैनी को ही अपने जीवन का सच मान लेते हैं।</b></div><div><b> वाकई आजकल की ज़िंदगी में खुद को समय देना बेहद ज़रूरी है बिल्कुल वैसे ही जैसे हम अपने रिश्तों , अपने सपनों, अपने ऊपरी आवरण पर देते हैं । हमें ज़्यादा कुछ नहीं करना है बस रोज़ सेल्फ टॉक करनी है और जब इस प्रक्रिया को हम अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना लेंगे तब हमें आंतरिक तौर पर अलग ही प्रसन्नता का अहसास होगा बिल्कुल वैसे जैसे हरियाली को देखकर ,जैसे छोटे बच्चों को देखकर होती है। </b></div><div><b> जब सेल्फ टॉक या स्वयं से बात करते हैं तब हम ख़ुद को जानना शुरू करते हैं ,और जानने की इस प्रक्रिया में हमारा आत्मिक विकास होना भी शुरू होता है ,हम अपनेआप से जागरूक होने लगते हैं, अपनी महत्ता को समझने लगते हैं कि इस दुनिया में जितने भी प्राणी हैं उनका एक उद्देश्य है ,एक लक्ष्य है।</b></div><div><b> ये एक सतत प्रक्रिया है जिसे दैनिक करना उत्तम ,जिससे हम निरर्थक विचारों ,सबकुछ होने के बाद की पनपी उदासी नहीं घेरती।</b></div><div><b><br></b></div><div><b>विभा परमार</b></div><div><b> </b></div><div><b> </b></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-578161143210132722021-07-31T04:28:00.001-07:002021-07-31T04:28:59.671-07:00तिलिस्म<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6D1QEIjA3usbBUTe4iXR-K1ncVU_edoTE-HqG4VvBtlSkpY1O7lVaZmWBD15xbXPfbFbeaF85UvCZMJm2TnEhBxzcq7Cv_a6YLEBX0CDNJ7O0VQiz4nfBi7kLQTIWExtcXbw6iGI8Dw4/s1600/1627730932547413-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div><b>कोई तिलिस्म है जो मुझे तुममें रहने को विवश करता है, इस विवशता को दुख से मत जोड़ना ,कोई विषाद मत आंकना ,बस कुछ है जो रहने को विवश करता है </b></div><div><b>पता है इतनी तो मैंने यात्राएं भी नहीं की जितनी कि तुम में अनेक यात्राएं कर ली और इन यात्राओं में मुझमे रोज़ नयी मुस्कुराहट कौंध जाती है, मैं सच में तुम्हें अपने करीब देखना चाहती हूं इतना कि </b></div><div><b> एक ही बिस्तर पर तुम्हारी तरफ़ करवट लेकर तुम्हें निहारते निहारते सोना और सुबह निहारते हुए उठना </b></div><div><b> हां उस बीच रात के उस पहर में अगर तुम मुझे चूम लेते हो तो मुझे रत्तीभर भी बुरा नहीं लगेगा बल्कि तुम्हारे करीब होने का वो तिलिस्म मेरे अंदर और मजबूती से जम जाएगा </b></div><div><b>विभा परमार</b></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-61821817766377759292021-07-31T04:17:00.001-07:002021-07-31T04:17:25.663-07:00ख़त<div><b><br></b></div><div><div id="m#msg-a:r4371493521305796089" class="mail-message expanded"><div class="mail-message-header spacer"></div><div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images "><div class="clear"><div dir="auto"><div dir="auto"><div><b>कोरोना में जकड़ने के बाद शरीर में बड़ी अफरातफरी मची हुई है ज़्यादा सोचना, दिमाग में पुरानी स्मृतियों का निरंतर जीवंत उठना, मुझे विवश कर रहा है बिस्तर पर इधर उधर करवटें बदलने को , </b></div><div dir="auto"><b>नींद तो जाने कई रातों से लापता हो गई है और ये मन, इसका क्या कहूं , इसे कुछ भी नहीं भा रहा, खाने में स्वाद का गायब हो जाना,</b></div><div><div dir="auto"><div dir="auto"><div dir="auto"><b>सच में वो कहते हैना कि अगले एक पल में क्या हो जाए किसी को भान नहीं,</b></div><div dir="auto"><b>इन दिनों दिल धड़कने के बजाए डर धड़क रहा है इसके बावजूद भी मैं तुम्हें सोच रही हूं </b><div dir="auto"><b> ये लड़की भी ना अलग ही गुल खिलाने में लगी है </b></div><div dir="auto"><b>अभी अपनी इम्यूनिटी पर ध्यान देना चाहिए तो तुम पर ध्यान दे रही है, </b></div><div dir="auto"><b>कैसा मोहपाश है ,कैसा आलय है ये </b></div><div dir="auto"><b>मेरी आत्मा कई पीड़ाओं से भर गई है ,</b></div><div dir="auto"><b>बची रह गई तो कोरोना वॉरियर कहलाऊंगी और अगर नहीं तो पता नहीं,अच्छा तुम्हें बताना भूल गई थी कि मुझे जब हल्की नींद आई थी तब उस नींद में का़फ्क़ा आए थे और वो अपने उस ख़त की बात कर रहे थे जो फेलिस को लिखा था कि </b></div><div dir="auto"><b>अगर हम अपनी बाहों का प्रयोग नहीं कर सकते</b></div><div dir="auto"><b> तो आओ </b></div><div dir="auto"><b>शिकायतों के ज़रिए </b></div><div dir="auto"><b>एक दूसरे का आलिंगन करें</b></div><div dir="auto"><b>ये कहकर उन्होंने लंबी गहरी सांस ली और अदृश्य हो गए ,फ़िर तुम भला नफ़रत कैसे कर सकते हो?</b></div><div dir="auto"><b>पर हां गुस्सा ज़रूर कर सकते हो जैसे हम कर देते हैं!</b></div><div dir="auto"><b>और इसमें बुरा भी क्या</b></div><div dir="auto"><b> नेह है ,लगाव है जिससे गुस्सा स्वाभाविकता उपजता ही है,सुनो मैं हमेशा तुमसे शिकायतों से आलिंगन करना चाहूंगी!</b></div><div dir="auto"><b> इस समय बिल्ली के बच्चे की तरह मेरे भाव मिमिया रहे हैं और मैं ख़ामोशी से बैठकर इनके मिमियाने की ध्वनि को महसूस कर रही हूं</b></div><div dir="auto"><b>डॉक्टर ने कहा है कि तुम अकेली नहीं हो, इससे हर दूसरा घर लड़ रहा है,तुम बिल्कुल फिक्रमन्द रहो </b></div><div dir="auto"><b>ठीक हो जाओगी </b></div><div dir="auto"><b>हो सकता है ठीक हो जाऊं मगर ये पहर कट नहीं रहे</b></div><div dir="auto"><b>ऐसे में महादेवी वर्मा याद आ रही हैं कि </b></div><div dir="auto"><b>जो तुम आ जाते एक बार</b></div><div dir="auto"><b>कितनी करूणा कितने संदेश</b></div><b>पथ में बिछ जाते बन पराग<br>गाता प्राणों का तार तार<br>अनुराग भरा उन्माद राग<br><br>आँसू लेते वे पथ पखार<br>जो तुम आ जाते एक बार</b></div><div dir="auto"><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>(दिल में ही) करीब नहीं </b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>ये बीमारी ही ऐसी है जितनी दूरी उतनी ही शरीर की सहुलियत </b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>पर दिल में तो आ सकते हो ना</b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b><br></b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>कहीं ऐसा ना हो कि भाव का निजी उचाट विलाप करने लगे </b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>और मैं उचट जाऊं सदा सदा के लिए जीवन से</b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>नफ़रत नहीं मगर शिकायत रहेगी कि मेरे समझदार प्रेयस को पता था कि उसकी प्रेयसी को भी महामारी ने जकड़ लिया और उसने उस वक्त प्रेम को छोड़कर नफ़रत को चुना!</b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b><br></b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b>विभा परमार<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZMC_C4gLiZ1maEh80PlByTvN9tZZmZENMoy6pN71Q-aG0c6omIi2GEPvGafMlwHXvZbQDveYIoQwlxBNLzlFN-vpzDvaAGZI9SxNAFThhwBGO12VyVeWj_LwBHutYFTvPkUFeev2tpfg/s1600/1627730236095334-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZMC_C4gLiZ1maEh80PlByTvN9tZZmZENMoy6pN71Q-aG0c6omIi2GEPvGafMlwHXvZbQDveYIoQwlxBNLzlFN-vpzDvaAGZI9SxNAFThhwBGO12VyVeWj_LwBHutYFTvPkUFeev2tpfg/s1600/1627730236095334-0.png" width="400">
</a>
</div></b></font></div><div dir="auto"><font color="#333333" face="helvetica neue, helvetica, arial, sans-serif"><b><br></b></font></div><div dir="auto"><b><br></b></div><div dir="auto"><b> </b></div></div></div></div></div><div></div></div><br></div></div></div><div class="mail-message-footer spacer collapsible"></div></div></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-14829505048257698352021-07-31T03:35:00.001-07:002021-07-31T03:36:01.204-07:00 प्रेम अनंत<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxGtecUjRmH1UtZwxLVxaESSXl5EuBqS6t3dqmAGfvpCGvtHbHie6AP4YhNvnlHIlK8P1ZF33gLWPE_S4XNtkojJOzgKo_rvpiy89wcPrFIWkEuQuGR4rm-A68pOMFxSn40VMernyeBHw/s1600/1627727731901507-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxGtecUjRmH1UtZwxLVxaESSXl5EuBqS6t3dqmAGfvpCGvtHbHie6AP4YhNvnlHIlK8P1ZF33gLWPE_S4XNtkojJOzgKo_rvpiy89wcPrFIWkEuQuGR4rm-A68pOMFxSn40VMernyeBHw/s1600/1627727731901507-0.png" width="400">
</a>
</div><div><b>प्रेम अनंत है, तो प्रेम समंदर भी है ,प्रेम चिढ़न है, तो प्रेम पागलपन भी है, इसकी ऊर्जा ऊपर जब उठती हैना </b></div><div><b>तब ये दुनिया , लोग , प्रकृति जानवर सभी ख़ूबसूरत नज़र आते हैं ,और जब इसकी ऊर्जा शून्य पर जाती है तब यही सब लोग भौंडे बदसूरत से नज़र आते हैं </b></div><div><b>कमियों की खान सहित अथाह चिड़चिड़ापन आने लगता है ,सबकुछ व्यर्थ सा लगने लगता है! </b></div><div><b>वाकई सभी ऊर्जाओं में प्रेम ऊर्जा सबसे सुंदर ,शांत ,स्नेहिल महसूस करवाती है ,कितनों की मानसिक पीड़ाए दूर की हैं</b></div><div><b>कितनों को इस ऊर्जा ने बतलाया है कि दुनिया में तुम भी ख़ूबसूरत हो , तुम्हारा भी अपना अस्तित्व है, तुम कमाल हो</b></div><div><b>प्रेम आपके बेवजह के विचारों को सहला कर सुला देता है ,माथे पर चूमकर तसल्लीभरी नींद दे देता है और कसकर गले लगाकर ये अहसास करवाता है कि तुम अकेली नहीं हो मैं हूं तुम्हारे साथ ,तुम्हारे लिए या यूं कहो कि </b></div><div><b> हम दोनों के लिए, </b></div><div><b> मैं मानती हूं शब्दों की माया को ,शब्द हमें ढांढस बंधवाते हैं, हमें दुनिया की इस भारी भीड़ में अकेलापन महसूस नहीं करवाते , बिल्कुल वैसे जैसे अपनी प्रिय किताबें ,प्रिय भोजन ,प्रिय लोग </b></div><div><b> बस जीवन यही है बाकी कुछ भी नहीं </b></div><div><b>विभा परमार</b></div><div><br></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-31036559875479925812021-07-31T03:28:00.001-07:002021-07-31T03:31:53.587-07:00सम्मोहन<div><b>उदासियों को कोई समस्या नहीं होती मेरे पास ठहरने में</b></div><div><b>मगर प्रेम.....मुआफ़ी तुम्हारा प्रेम </b></div><div><b>इसे ज़्यादा ही समस्याओं,मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है तभी देखो ना </b></div><div><b>अब कोई आहट नहीं ,</b></div><div><b>अब कोई गुलाब से ख़्वाब नहीं </b></div><div><b>अब तुम भी ख़्वाबों में मिलते नहीं</b></div><div><b>ये कवियित्री के तौर पर लिखना बेहद आसान है</b></div><div><b> मगर प्रेमिका! </b></div><div><b> प्रेमिका नाम लिखते ही आंखें गीली हो जाती हैं</b></div><div><b> क्या करूं फ़िर भी एक लंबी गहरी सांस लेकर सबकुछ प्रेमभरा हो जाएगा सोचकर इस वक्त को </b></div><div><b> मैं बिना सोचे समझे काटे जा रही हूं ,बहुत ज़्यादा सोच नहीं रहे</b></div><div><b> फ़िर भी अपनेआप से आंखों से पानी बहने लग जाता है और जब पानी बहता है तब याद आता है </b></div><div><b> कि </b></div><div><b> सुनो तुम्हें सामान्य रहना है ,ऐसा वैसा कुछ भी नहीं है जिसको सोचकर तुम विलाप में डूबती जा रही हो!</b></div><div><b> सबकुछ कर रही हूं, सिर में जुएं हो गए गर्मी से या ज़्यादा सोचने से पता नहीं बस वो साल याद आ जाता है जब मेरा पहला प्रेमी छोड़कर चला गया था 2017! में तब भी सिर में ऐसे ही जुओं ने पैठ जमा ली थी, उस वक्त भी उमस भरी ही गर्मी थी!</b></div><div><b> फ़िर मैं इधर उधर टहलने लग जाती हूं ,लंबी गहरी सांसे लेने लगती हूं और रामजी को याद करती हूं ,कि किसी सज्जन इंसान ने मेरा चेहरा देखकर कहा था कि तुम ज़्यादा ना सोचा करो और जब ज़्यादा सोचो तब राम जी का नाम ले लिया करो कुछ सहने में आसानी रह जाएगी!</b></div><div><b> आज के युग में इतनी सुविधाएं हो गई हैं मापने की </b></div><div><b>कि हम लंबे पुल को तो माप सकते हैं मगर सम्मोहन के पुल को नहीं!<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPbhmtTw94dPli2TkAaSpb3HkCKWvIEVNsLrra44VD_Y9RZgjOGKT7yZgTXmawuezT_QV5f4fJt1XtVweYVor9ea0AZLlqZ5hMaASWq05Mu4tpfrcgQkZEUF2YUQo559SJaspyk01ljao/s1600/1627727298296358-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPbhmtTw94dPli2TkAaSpb3HkCKWvIEVNsLrra44VD_Y9RZgjOGKT7yZgTXmawuezT_QV5f4fJt1XtVweYVor9ea0AZLlqZ5hMaASWq05Mu4tpfrcgQkZEUF2YUQo559SJaspyk01ljao/s1600/1627727298296358-0.png" width="400">
</a>
</div></b></div><div><b><br></b></div><div><b>विभा परमार</b></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-10654387339620399662021-07-31T03:17:00.001-07:002021-07-31T03:17:23.262-07:00ठंडक<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFpWiPLPhZe_35A2ngvWzvw5ZJL1VUS_QKHwCtR8-UkIdQ-U8PNQgXcLaErB4NU3777B_kbRwbm1iRi-1r9UH7Rp7Aoj4cesrk-Y9e1QVOj2GMtgijnv78r1jY58i276G-tqJerEkeR6U/s1600/1627726634559985-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFpWiPLPhZe_35A2ngvWzvw5ZJL1VUS_QKHwCtR8-UkIdQ-U8PNQgXcLaErB4NU3777B_kbRwbm1iRi-1r9UH7Rp7Aoj4cesrk-Y9e1QVOj2GMtgijnv78r1jY58i276G-tqJerEkeR6U/s1600/1627726634559985-0.png" width="400">
</a>
</div><div>उमसभरी गर्मियों में हममें भी उमस भर चुकी है, इसकी ख़बर शायद दोनों को ही नहीं, और ख़बर है भी तो कोई इल्तिजा नहीं, फ़िर भी मन में भरी उमस में तुम्हारा ख़्याल अचानक मुझमें ठंडक पैदा कर जाता है ,</div><div>जिसे मैं एक बार और महसूस करना चाहती हूं ,</div><div>मेरी ये एक बार और महसूस करने की चाहनाओं का कोई अन्त नहीं</div><div>कहीं कोई चूक, कहीं कोई चुप्पी ,कहीं कोई प्यास खाए जा रही है कुछ दिनों से या यूं कहो तुम्हारे अचानक से ख़ामोश हो जाने से मेरे अंदर तक चोट की ,बस इस चोट में आहें ,आक्षेप नहीं निकलते ,सिवाए आंखों का </div><div>रिसाव कभी भी शुरु हो जाता है,</div><div> मैं बिल्कुल भी नहीं चाहती कि ऐसा कुछ मेरे अंदर घटे, इससे ये हो रहा है कि मेरी तबियत खराब हो गई ,सच में ऐसी तबियत जब खराब हो तो डॉक्टर भी सोचता है कि ऐसे में क्या ही दवाएं दी जाए,</div><div>बिस्तर में हूं ,डॉक्टर ने कहा है कि पेड़-पौधों को देखो उनके रंगों को देखो कुछ गढ़ो ,तुम तो लिखने वाली लड़की हो ,कुछ प्यारा लिखो जिससे तुम जल्दी ठीक हो जाओ,</div><div>भला ये भी उम्र चुपचाप किसी सदमे में रहने की है।</div><div> मैं बस उनके सामने मुस्कुराकर रह गई </div><div> क्या कहूं उनसे कि मेरे एकांत में भी तुम्हारी ही उपस्थिति है तो सामान्य जीवन में कितनी रही होगी और इसे भला कैसे बतलाया जा सकता है </div><div> अच्छा सुनो मुझे दवा खाना बिल्कुल पसंद नहीं अलग अलग भय मेरे चारों तरफ मक्खी की तरह भिनभिनाने लगते हैं .......</div><div> ये दवाएं मुझे जबरदस्ती सुलाने की कोशिश करती हैं इतनी मशक्कत करनी ही क्यूं सारे मसलों पर वक्फ़ा ज़रूरी है तुम आओ और मुझे गले लगाकर बतला दो इन्हें </div><div> कि सच में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं हुआ,और मैं इस तसल्ली से सो सकूंगी कि अब तुम आ गए हो तो</div><div> मैं,</div><div> मेरा सबकुछ ठीक हो गया है!</div><div><br></div><div>विभा परमार</div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-79213752982661226932020-07-14T23:21:00.001-07:002020-07-14T23:21:48.080-07:00प्रायश्चित<div>देखना एक दिन </div><div> मैं अपने द्वारा बनाई यात्रा पर निकल जाऊंगी </div><div> जिसमें </div><div> मेरी व्याकुलताएं </div><div> मेरे विलाप और कुछ </div><div> ना कही जाने वाली बातें मौजूद होंगी</div><div><br></div><div>अच्छा मेरी इस यात्रा में तुम शामिल ज़रूर होना </div><div> तुम्हें एक एक कदम पर </div><div> मेरी एक एक बात ज़रूर याद आएगी</div><div>जिन्हें तुमने सदैव धूल की तरह झाड़ा</div><div> मैं जान तो रही थी</div><div> मगर समझ नहीं पा रही कि </div><div>मेरी बातें तुम्हारे लिए धूल ही हैं</div><div> मगर मेरे लिए ये मेरा तुम्हारे प्रति स्नेह </div><div> आख़िर कैसे मैं दिन- दिनभर तुम्हारा इन्तज़ार करती रहती </div><div> और वहीं तुम अपनी व्यस्तताओं का ब्यौरा लेकर लौटते रहते </div><div><br></div><div> मैंने ना अक्सर ख़ुद को बेकाबू होते देखा है</div><div> और इस बेकाबूपने को काबू करते भी </div><div> ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा व्यस्त रखना </div><div> ताकि भूल से भी </div><div> तुमसे जुड़ी कोई बात ,तुम्हारा कोई जानने वाला</div><div> तुम्हारा कोई मैसेज,</div><div> मेरे इर्दगिर्द ना घूमे</div><div> मगर कभी कभी तुम्हारी स्मृतियां मुझे उसी पुराने रस्ते पर खड़ा कर देती है</div><div> </div><div> मैं लड़ते लड़ते थक गई</div><div> मैं कहते कहते थक गई</div><div> और इस रोज़ की लड़ने और कहने की थकावट ने</div><div> मुझे ख़ामोश कर दिया!</div><div> </div><div> अब तुम जाओ </div><div> तुम्हारा जहां मन हो</div><div> तुम सिर्फ़ किसी एक के नहीं </div><div> तुम हर किसी के बन के जिओ</div><div> यही तुम्हारी सज़ा है</div><div> और मेरा आंतरिक प्रायश्चित!</div><div><br></div><div>विभा परमार<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn981_w5tPaKGWWZW2D5qYqWUTdiTXvDi1VyGqXx7YK0BkSvgd76FQyeluEcO_RNCu8Yp3ykLAGEjWjbTHSoN-p2me3Bqc-TcLwspBrFq-qBrIS9hHIifeBrAqYgDk-SuRPwJNhElTx1M/s1600/1594794098409971-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn981_w5tPaKGWWZW2D5qYqWUTdiTXvDi1VyGqXx7YK0BkSvgd76FQyeluEcO_RNCu8Yp3ykLAGEjWjbTHSoN-p2me3Bqc-TcLwspBrFq-qBrIS9hHIifeBrAqYgDk-SuRPwJNhElTx1M/s1600/1594794098409971-0.png" width="400">
</a>
</div></div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-25340198687762112122020-07-14T23:14:00.000-07:002021-07-31T03:37:04.265-07:00नींद<p dir="ltr">संवाद<br>
प्रेमिका जो अब पत्नी बन चुकी है उसकी तबियत कुछ खराब है और वो अपने पति को लिखती है कि</p>
<p dir="ltr">इन दिनों मेरी तबियत कुछ नासाज़ रहती है<br>
और मेरे <br>
चुलबुलेपन का उत्साह भी डगमग रहता है<br>
खाने से मन ने मुंह मोड़ रखा है<br>
जिससे <br>
चेहरे पर उदासी की झुर्रियां चमकती हैं <br>
बस लगता है कि <br>
दोनों पहर दवाएं पी रहीं हूं <br>
मैं ना वैसे ही तुम्हारी देखरेख को पीना चाहती हूं<br>
ताकि तुम मेरा<br>
फ़िर से खिलखिलाता चेहरा देख सको<br>
<br>
अपलक नज़रों से देखती रहती हूं तुम्हें <br>
बेड के पास बैठकर जाने क्या लिखते रहते हो <br>
और तुम्हें देखते देखते <br>
दवाओं का असर मुझे नींद की दुनिया में ले जाता है<br>
वहां हम साथ हैं<br>
प्रणय की मुंडेर पर बैठकर<br>
चिढ़ाते एक दूसरे को<br>
तुम शांत होकर मुझ वाचाल को निहार रहे हो</p>
<p dir="ltr">सच में <br>
ये नींद की दुनिया बेहद ख़ूबसूरत है<br>
जिसमें हम हक़ीक़त से बहुत दूर हैं <br>
कोई मय और तुम्हारे जाने का डर भी नहीं भटकता <br>
नींद में सोचती हूं कि इतनी फिक्रमंद तो मैं हक़ीक़त में भी नहीं रहती जितनी कि नींद में रहती हूं तुम्हारे साथ!</p><p dir="ltr">विभा परमार</p>
<p dir="ltr"> </p>
विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-16491424828252382612019-07-25T02:03:00.001-07:002021-07-31T03:38:07.647-07:00पद दलित<p dir="ltr">कितना अजीब होता है कि <br>
हमें प्रेम भी उनसे रहता है <br>
जो हमें छोड़ देते हैं <br>
एक समय बाद </p>
<p dir="ltr">छोड़ने के बाद लगता है कि<br>
प्रेम में <br>
हम मान लिए जाते हैं <br>
पद दलित<br>
जो सदा-सदा जुटाते रहते हैं <br>
अपने लिए एक-एक पाई!</p>
<p dir="ltr">इस पाई को जुटाने के लिए <br>
हमें कितनी बाधाओं,कितनी प्रताड़नाओं ,कितनी विपरीत स्थितियों से जूझना पड़ता है<br>
बिल्कुल वैसे ही <br>
जैसे जूझता है किसान फसलों को लेकर <br>
सारे मौसमों से!</p>
<p dir="ltr">ये मौसम लगते है सदा दलित(प्रेम) के खिलाफ<br>
जिसे अपने कहर से तोड़ने की करते हैं कोशिश <br>
इस कोशिश में एक समय ऐसा आता है कि<br>
दलित चुन लेता है चुप्पियों का एकांत<br>
जो चुप होकर ,करने लगता है अभिनय प्रसन्न रहने का<br>
क्यूंकि वो जानता है कि <br>
उनके पास नहीं होता है और कोई विकल्प इसके अतिरिक्त<br>
वो बखूबी महसूसते हैं <br>
ये बेबसी,आत्महत्याएं और दोषों के अलावा भी होती है <br>
एक ख़ूबसूरत ज़िंदगी <br>
जिसे ऐसे ही ज़ाया कर देने भर से नहीं मिलेगी आत्मिक संतुष्टि</p><p dir="ltr">विभा परमार<br><br><br><br><br><br></p>
विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-4219775717377827932019-01-10T08:30:00.001-08:002021-07-31T03:25:37.423-07:00रीत!<p dir="ltr"><b>मैंने आज देखा ,और कई बार देखा! </b><br>
<b>हां तुम सही कह रहे थे, रीत देखो तुम्हारी वो बात जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आख़िरकार वो सच हो ही गई!</b><br>
<b>जो उत्सुकता,जो प्रसन्नता,जो मुस्कुराहट मेरे अंदर तुम्हारे लिए झलकती है,वो शायद,शायद तुम्हारे अंदर नहीं!</b><br>
<b>कुल मिलाकर मैं खुली आंखों से सूरज को देखने की चाह रख रही हूं जबकि खुली आंखों से सूरज को देखने पर आंखें मेरी ही चौंधियांगी,</b><br>
<b>सोचती हूं रीत!</b><br>
<b>कि सब जानकर भी मैं उस रथ पर सवार हो रही हूं जिसका सारथी मैं ख़ुद हूं ,जो चलता चला जा रहा है,तुम्हें सोचकर! </b><br>
<b>ऐसा नहीं कि मुझे घबराहट नहीं होती,मन बिछोह से नहीं कराहता, कल-कल पानी की तरह प्रश्न नहीं बहते, मैं फ़ैसला लेने की जुगत करती हूं कि उसी वक्त तुम्हारा चेहरा मेरे सामने कौंधने लगता है, जिसको देखकर मैं बादल की तरह गरज जाती हूं,मेरे आंतरिक मन में हिम्मत की बिजलियां चमकने लगती है </b><br>
<b>कि जो हो रहा,जो चल रहा वो सब सही ही है, </b><br>
<b>इतना क्या सोचना? </b><br>
<b>लेकिन जब तुम, तुम मेरे प्रति रुचि नहीं दिखा पाते तब मैं व्यथित होकर उसी रथ पर सवार होकर ऊबड़ खाबड़ रस्तों पर तेजी से रथ को दौड़ाने लगती हूं, तब मुझे इतना भी होश नहीं रहता कि रथ के पहिए निकल भी सकते है,चोट लग सकती है,रस्तों से भटक भी सकती हूं,</b><br>
<b>पर तुम ख़ुद ही देखो ना रीत! मैं आख़िर करूँ क्या </b><br>
<b>मैं तुम्हारे क़रीब नहीं आना चाहती, क्यूंकि तुम्हें नहीं चाहिए! </b><br>
<b>ना मैं, कुछ भी नहीं चाहिए तो फ़िर मैं तुम्हें तंग करूं ही क्यूं! </b><br>
<b>तुम तो मेरे होने और ना होने से ना घटोगे और ना ही बढ़ोगे,</b><br>
<b>लेकिन मैं ज़रूर तुम्हारे ना होने से घट जाऊंगी, और तुम बख़ूबी जानते हो रीत</b><br>
<b>पसंद,आकर्षण, प्रेम क्या है नहीं समझ आता लेकिन जब तुम मेरे प्रति प्रयास नहीं करते तो मुझे मैं बासी रोटी के बासी ही लगती हूं, जिसको सुबह चाय के साथ तब खाया जाता है जब कोई स्पेशल ना बना हो!</b></p>
<p dir="ltr"><b>तुम्हारी ज़िंदगी में मेरा प्रवेश देर से हुआ! इसमें भी मुझे अपनी ही ग़लती दिखती है रीत </b><br>
<b>तुम तो रीत हो सुख देने वाले </b><b>लेकिन</b><b> मैं मैं </b><b>रिव़ाज</b><b> जो प्रथा </b><b>बनकर</b><b> </b><b>एक</b><b> </b><b>दिन</b><b> </b><b>घुट</b><b> जाएगी!</b></p>
<p dir="ltr"><b>विभा </b><b>परमार</b><br></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH-Pf22BIAnelNCm-22ut3ozXUBUnjTQuyuzbxq_t9cj5RL5G346QCVM9C1nm5WCfrS1vb5IKRefj2MTlFi0IJR7DHds0Hbyjk_7XJizCbRpXEICp4TxBZAtgr_s5u-bD1I3fL1OPGjDg/s1600/IMG20190107182825.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH-Pf22BIAnelNCm-22ut3ozXUBUnjTQuyuzbxq_t9cj5RL5G346QCVM9C1nm5WCfrS1vb5IKRefj2MTlFi0IJR7DHds0Hbyjk_7XJizCbRpXEICp4TxBZAtgr_s5u-bD1I3fL1OPGjDg/s640/IMG20190107182825.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-36687655188168863912019-01-04T06:06:00.001-08:002021-07-31T03:29:46.407-07:00वो नहीं<p dir="ltr">हम अकेले ज़्यादा खुश है<br>
ना किसी का इन्तज़ार <br>
ना किसी से इज़हार<br>
ना किसी से उम्मीद<br>
ना किसी से निराश<br>
लिखने में तो हम ये सब लिख ही जाते है पर क्या इसे हम अपनी ज़िंदगी में उतार पाते है?</p>
<p dir="ltr">हम कहने के लिए बहुत कुछ कह जाते है<br>
हम सिर्फ़ कही गई बातों को ही मान जाते है<br>
लेकिन क्या इस स्थिति को हम वाकई महसूस कर पाते है?</p>
<p dir="ltr">नहीं बिल्कुल भी नहीं <br>
जाने कैसे कैसे मोह में बंधने लगते है इनसे छुटकारा भी चाहते है और शायद नहीं भी चाहते<br>
आज स्थितियां बिल्कुल भी भारी नहीं<br>
लेकिन कुछ ऐसा है जो घट रहा है, जो रिस रहा है<br>
पृथ्वी की तरह बस घूम रही हूं तुम्हारे चारों ओर <br>
मगर कोई ठहराव ही नहीं<br>
मैंने तुम्हें चुना नहीं ,<br>
कोई स्वयंवर रचा नहीं प्रेम के लिए</p>
<p dir="ltr">भाव आया <br>
इसमें मेरी आख़िर गलती क्या<br>
मोह आया <br>
इसमें मेरी आख़िर गलती क्या </p>
<p dir="ltr">अगर मेरा मन तुमसे लगा <br>
तुम में लगा <br>
इसमें मेरी ग़लती क्या</p>
<p dir="ltr">क्या मेरा जन्म सिर्फ़ गलती करने के लिए हुआ<br>
क्यूं नहीं तुम वो देख पाते हो<br>
क्यूं नहीं हो सकता तुम्हें प्रेम <br>
क्या तुम हो पत्थर <br>
या फ़िर <br>
सिर्फ़ मुझसे ही नहीं हो सकता तुम्हें <br>
प्रेम</p>
<p dir="ltr">मेरी ग़लती की फ़ेहरिस्त में <br>
बड़ी ग़लती ये हुई है कि<br>
जो महसूस होता है <br>
उसे मन में ना रखकर तुम्हें बताया!<br>
बस यही!</p>
<p dir="ltr">मुझसे नहीं होता <br>
मन को बहकाना <br>
और तुमसे नहीं होता <br>
मुझे स्वीकारना!</p>
<p dir="ltr">हम इस उम्र में आकर <br>
मिले ही क्यूं?<br>
तुम आए ही क्यूं <br>
नहीं जान पाई मैं <br>
ये कि <br>
प्रेम को कैसे, किससे, कब, <br>
किया जाए!<br>
मैं आख़िर कोई अवसरवादी तो हूं नहीं</p>
<p dir="ltr">वक्त दिया हमने एक दूसरे को <br>
लेकिन ये हो क्या गया! <br>
मैंने कोई साज़िश नहीं की </p>
<p dir="ltr">तुम्हारे प्रति अगर प्रेम आया <br>
तो क्या ग़लती है</p>
<p dir="ltr">तुम आज़ाद हो<br>
हर उस क्षण से<br>
जहां तुम्हें लगा हो कि ये प्रेमवश <br>
रखती है मेरा ख़्याल<br>
तुम आज़ाद हो<br>
हर उस बात से जहां <br>
तुम्हें लगा हो ज़रा भी ये कि <br>
है इसे कोई उम्मीद मुझसे</p>
<p dir="ltr">तुम इनके लिए कभी ख़ुद को दोषी मत समझना<br>
क्यूंकि ये कियाधरा सब मेरा है</p>
<p dir="ltr">मैं तुम्हें नहीं जानती भलीभांति <br>
लेकिन<br>
ख़ुद को तो बख़ूबी जानती थी ना!</p>
<p dir="ltr">क्यूं!!!!! </p>
<p dir="ltr">ये अन्तद्वंद मुझमे है<br>
ये सवाल मुझमे है<br>
पर जवाब <br>
जवाब <br>
इतने स्पष्टवादी <br>
जिनको सोचकर <br>
मुझमे घबराहट, निराशा, नाउम्मीदी पैदा हो जाती है</p>
<p dir="ltr"> बस शापित होकर रह गई हूं मैं <br>
प्रेम में<br>
जिसमें लगता है कि वो है <br>
मगर वो कोई नहीं <br>
बस वास्तविकता यही है!</p>
<p dir="ltr">विभा परमार<br><br></p>
<p dir="ltr"> <br>
<br><br><br><br><br><br></p>
<p dir="ltr"> <br><br><br><br><br><br></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhoTSsAVsR5UzZf8b7WneSEeveV7XvRdJbac5Ng2x1weilee1dUerEi8qcVJrI-ID4muHCU6piPMHMwboRyn3C4XjWVmUBmYyqmxfY-gN1PQDe-FO62QjcWryYeukCSmUQ6AS9ZphTgjA/s1600/IMG20190103183725.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhoTSsAVsR5UzZf8b7WneSEeveV7XvRdJbac5Ng2x1weilee1dUerEi8qcVJrI-ID4muHCU6piPMHMwboRyn3C4XjWVmUBmYyqmxfY-gN1PQDe-FO62QjcWryYeukCSmUQ6AS9ZphTgjA/s640/IMG20190103183725.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-8875906992596416392018-12-25T11:07:00.001-08:002018-12-25T12:15:27.088-08:00वी नो एवरीथिंग<p dir="ltr">कभी कभी लगता है कि हमें अपने सपनों के हसीं अतीत में जीना चाहिए जहां के किस्सों को हम वास्तविकता में सुना सके जिससे राहत नसीब हो।<br>
पर इस वास्तविकता भरे जीवन में राहत हो ये ज़रूरी नहीं,ख़ासकर उनसे तो बिल्कुल भी नहीं जिन्हें बख़ूबी मालुम हो कि हां इसका मोह है हमसे,इसलिए भी शायद मेरा जी ऊब जाता है कि हमे चाहते हुए और ना चाहते हुए भी सिमटते रिश्तों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है,आख़िर क्यूं हमें ज़रूरत पड़ती है मशक्कत की वो भी उनके लिए जिनसे सिर्फ़ मोह ही है!<br>
क्या मोह इतना ख़राब है?<br>
कि जिनसे मोह है भी थोड़ा बहुत वो भी अपनी ग़ैर स्थितियों के चलते अपनी गतिविधियों से बताने लगते है कि उन्हें ये मोह रास नहीं आता,वाकई ज़माना प्रायोगिक हो रहा है, और लोग प्रायोगिक हो रहे तो बुरा क्या! ऐसा तो बुरा कुछ भी नहीं लेकिन अगर जन्म से प्रायोगिक हो तो बिल्कुल भी बुरा नहीं पर अचानक से हो तो बुरा नहीं बहुत बुरा होता है।<br>
और अगर ऐसा हो ही रहा तो फ़िर ये प्रायोगिकता सिर्फ़ एक के लिए नहीं सबके लिए होनी चाहिए, पर ऐसा भी तो नहीं होता ना! <br>
बहुत साधारण सी बात बोल रहे हैं कि बहुत ज्यादा ख़राब लगता है इस ख़राब के लिए मेरे पास दोष जैसे शब्द नहीं होते,<br>
लेकिन हां मन में बहुत सारे सवाल फटकने लगते है, जिनके जवाब भी एक वक्त बाद गूंगे लगते है, कैसे? <br>
जैसे क्या बोल रही हो, मैं तो ऐसा करता नहीं, भला मैं क्यूं करूंगा ऐसा, मैं ये सोचकर नहीं बोला था, अरे यार क्या बोलूं, और अंत में तुम सही हो!<br>
मेरा मकसद तुम्हारी ग़लतियां बताना नहीं, वो तुम्हें पता ही है यू नो एव्रीथिंग!<br>
पर ऐसे व्यवहार से रिश्ते गढ़ते नहीं सिर्फ़ हाय हैलो तक ही सिमट कर रह जाते है, और कुछ नहीं <br>
हम भी तो चाहते है कि तुम जैसे सबके सामने अच्छे से पेश आते हो, अपनत्व से बात करते हो वैसे हमसे भी तो कर सकते हो, लेकिन तुम्हें पता हैना कि मोह है </p><p dir="ltr">तो बस!!!!</p>
<p dir="ltr">विभा परमार<br>
</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfYQ3hbEn5gtpSgmY5OayjuXF7kovC81zs95gbzLApeEyvJ3pg_xC0s9W_8Qn3OJeVThfe9iZLfly_xLH6KnreUgiLUEIcyn0DSryCiON0Or4OaCBgYW5VjRtY5QM_L-lysMantMmoH9Y/s1600/IMG20181221142721.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfYQ3hbEn5gtpSgmY5OayjuXF7kovC81zs95gbzLApeEyvJ3pg_xC0s9W_8Qn3OJeVThfe9iZLfly_xLH6KnreUgiLUEIcyn0DSryCiON0Or4OaCBgYW5VjRtY5QM_L-lysMantMmoH9Y/s640/IMG20181221142721.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-44235976218366224552018-12-02T02:12:00.001-08:002021-07-31T03:39:21.463-07:00प्रेम<p dir="ltr"><b>मैं तुम्हें बेहद करती हूं<br>
या हद में करती हूं<br>
प्रेम <br>
इसका तो मुझे भी नहीं मालुम<br>
और ना ही मुझे जानना ही उचित लगता है</b></p>
<p dir="ltr"><b>बस लगता ये है कि<br>
कैसे दो हृदय एक हुए जा रहे है<br>
जो रच रहा है तुम्हें मेरे अंदर<br>
इस रचना में मैं होकर भी <br>
मैं नहीं हो पा रही हूं<br>
बस मैं अवतरित हो रही हूं<br>
क्षण क्षण तुममें!</b></p>
<p dir="ltr"><b>तुम्हारी निगाहों भर से ही<br>
मैं निखर जाती हूं<br>
तुम्हारी आवाज़ भर से ही<br>
मैं प्रफुल्लित हो जाती हूं<br>
तुम्हारे पास आने भर से ही<br>
मैं शीतल हो जाती हूं</b></p>
<p dir="ltr"><b>मानों मिल रहे हो ऐसे<br>
जैसे मिलते है<br>
ओस और ओस की बूंद जैसे<br>
सफेद चमक<br>
शांति की चमक <br>
फैला रही है प्रकाश प्रेम का<br>
प्रकाश प्रेम का कर रहा है संतुष्ट <br>
हम लोगों को<br>
मुझे हर पहर <br>
और तुम्हें <br>
कुछ ही पहर!</b></p>
<p dir="ltr"><b>पर हर पहर<br>
और कुछ पहर में<br>
हम रहते है साथ<br>
ईमानदारी की डोर पकड़कर<br>
ये डोर है थोड़ी शरारती<br>
जो अपनी शरारतों से <br>
कर देती है तंग<br>
इस तंग में शामिल है<br>
कुछ व्यस्तताएं<br>
कुछ वक्त<br>
और कुछ नीरसताएं</b></p><p dir="ltr"><b>विभा परमार<br><br><br><br><br><br><br><br><br></b></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_PIL8l-rZr0iPx5Q1XS5G6FGJOZDZtNBZStmkQzKNayDi8YJBkyuF3mw4WWm_9dn3XsCaELaXwkAQRztNqvZZM6J5grNlHJk7QAcRRioGgOFWvemJr2vwkgzW2n6HipAtX7ilfwUNL9g/s1600/IMG20181128135631.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><b> </b><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_PIL8l-rZr0iPx5Q1XS5G6FGJOZDZtNBZStmkQzKNayDi8YJBkyuF3mw4WWm_9dn3XsCaELaXwkAQRztNqvZZM6J5grNlHJk7QAcRRioGgOFWvemJr2vwkgzW2n6HipAtX7ilfwUNL9g/s640/IMG20181128135631.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-56962747650678156542018-11-25T01:55:00.001-08:002018-11-25T01:55:43.719-08:00मनावट<p dir="ltr">कभी कभी मनावट इतनी करीब लगने लगती है कि हम उसको शब्दों की डोर से परिभाषित नहीं कर सकते।<br>
हां.... मन की मनावट जो हर किसी में नहीं विचरती, और ना ही हर किसी को विचरने का मौका देती है, बड़ी अजीब है ये मनावट इतनी कि मैं इसकी तुलना उस छोटे बच्चे से कर सकती हूं जिसे जो चीज़ पसंद आ जाए तो फिर ज़िद पकड़ कर बैठ जाता है और कहने लगता है चाहिए तो चाहिए बस, मैं कुछ नहीं जानता।<br>
पर यहां ना ही हम बच्चे ही रहे और ना ही ऐसी कोई परिस्थिति ही आई कि चलो बच्चा बनकर एक बार ज़िद्द ही कर लें।<br>
बात तो सिर्फ़ छोटी सी है कि मनावट हर किसी को लेकर नहीं बनता इस मनावट का बीज ज़मी में जम चुका और अब ,अब अंकुरित हो रहा है, इश्शशश ये क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये ज़मी ज़मी ना होती काश बंजर होती। <br>
पर कहां ही ऐसा होता है, इंसान की ज़िंदगी बड़ी अजीब है यहां किसके साथ क्या घटित हो जाए किसी को कोई ख़बर नहीं, बस कुछ ऐसा ही हो रहा है यहां,मन तो लगा है बहुत लगा है मन पर जाने किसकी तलाश ,<br>
हम वो सब भी करते है जिसका रत्ती भर भी शिकवा नहीं होता, शिकवा भी भला कैसा और किसके लिए आखिर होता तो मनावट की वजह से ही।<br>
सोचती हूं हम इंसानों को चाहिए होता है इक इत्मिनान जो हमेशा हमारे अंदर शांति पैदा करे, जो हमें सकारात्मक करे, हमारे पास से गुज़रने वाले विचारों पर ताला लगाए ,पर ताला..... लग ही जाए ये भी ज़रूरी नहीं, हम ऐसे रस्तों पर चले जा रहे जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ रेगिस्तान है जो हमारे तलवों को जलाए जा रहा है, रेगिस्तान का अंत है भी पर हम अंत की परवाह नहीं करते हमें परवाह है तलवों की.....<br>
अनिश्चित ज़िंदगी में अनिश्चित लोगों की दस्तक को हम इतना महत्व कैसे दे देते है, दस्तक सिर्फ़ दस्तक तक क्यूं नहीं सिमट पाती है ,ये कैसा सम्मोहन होता है जो एक पर अटक कर रह जाता है <br>
इसमें दोष किसका मनावट का,मोह का, या हम लोगों का <br>
हम चाहते भी है और नहीं भी चाहते , हम खुश भी रहना चाहते है और नहीं भी ,हम अकेले भी रहना चाहते है और नहीं भी <br>
कितना कुछ प्रकट होता है और कितना कुछ अंदर रह जाता है ,जो अंदर रह जाता है वह पागल कुत्ते की तरह हमें काटने को दौड़ता है ,और हम भागने लगते है ,भागते रहते है जब तक कि हम दूर नहीं हो जाते पागल कुत्ते से, भागकर हम घर नहीं ढूंढते हम ढूंढते है क्षणिक ठिकाना वो भी ऐसा जहां अकेले रहा जा सके, घर ढूंढनेंगे तो प्रेम उत्पन्न होगा और प्रेम उत्पन्न होगा तो ज़िम्मेदारियों का बंधन होगा इसलिए हम भागते रहते है, पर कभी कभी लगता है कि देना चाहिए खुद को आराम ,होना चाहिए घर, जहां इत्मिनान हो खुद के होने का पर!!!!<br>
</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhX2XdZSoZA1MUtN5q-YdDSzj7k1ry1G222xg9867opxkVvArgDbJd0ZKZ1pHgNKLBPIW3IwS0iGSJ1i0b_C_BGF4Xof2mA9nWVVgBgv2EIdk1OLOdfgl0KElE5NtYu1w7oqDlEGRldRbg/s1600/IMG20180730144740.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhX2XdZSoZA1MUtN5q-YdDSzj7k1ry1G222xg9867opxkVvArgDbJd0ZKZ1pHgNKLBPIW3IwS0iGSJ1i0b_C_BGF4Xof2mA9nWVVgBgv2EIdk1OLOdfgl0KElE5NtYu1w7oqDlEGRldRbg/s640/IMG20180730144740.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-21802773126057228362018-11-03T11:25:00.001-07:002021-07-31T03:30:41.146-07:00ज्वार धारा<p dir="ltr">मैं प्रेम में <br>
पहले भी ज्वार थी<br>
और अब भी ज्वार ही रही</p>
<p dir="ltr">और तुम,<br>
तुम प्रेम में धारा!</p>
<p dir="ltr">धारा बन तुम अपनी गति में बहते रहते हो<br>
धारा यानि कि तुम <br>
किसी और से नहीं <br>
बस अपनी दशा से प्रभावित हो</p>
<p dir="ltr">लेकिन ज्वार<br>
इसका स्वभाव ही<br>
बेपरवाह सा है<br>
जिसमें प्रतीक्षा ज्यादा है<br>
जिसमें स्नेह ज्यादा है<br>
जिसमें उबाल ज्यादा है</p>
<p dir="ltr">धारा में प्रेम है भी और नहीं भी<br>
धारा में मैं हूं भी और नहीं भी<br>
धारा में तुम हो भी और नहीं भी<br>
मगर ये धारा तुम हो ये ज्ञात है तुम्हें<br>
और मैं ज्वार हूं ये मुझे ज्ञात है</p>
<p dir="ltr">विभा परमार</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg28VmaUmXglkc4tTN9shmVRbnsH26tglcmfVn87yKXFIDAUctGFE6MpewjLgLpZqAnrcFbbcSYb4ZXn8cvC3wX5hI3WoBU4juDTJD3VRW2UNZkoLR5p6NvmHvbsbX8NvhheP_rNLmTpAw/s1600/IMG_20181103_231643.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg28VmaUmXglkc4tTN9shmVRbnsH26tglcmfVn87yKXFIDAUctGFE6MpewjLgLpZqAnrcFbbcSYb4ZXn8cvC3wX5hI3WoBU4juDTJD3VRW2UNZkoLR5p6NvmHvbsbX8NvhheP_rNLmTpAw/s640/IMG_20181103_231643.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-12217192362032188562018-10-19T12:13:00.001-07:002021-07-31T03:40:10.049-07:00प्रेम में नदी होना<p dir="ltr"><b>मैं दिल में पवित्र भाव लिए बैठी रहती हूं<br>
जिसे कह सकते है हम लोग <br>
"प्रेम"<br>
ये भाव मुझे बार- बार <br>
तुममें विचरने को कहते है<br>
इस विचरने की यात्रा में <br>
हम मिलते है <br>
घंटों साथ रहते है <br>
और और <br>
एक दूसरे निहारते है<br>
इस निहारने की प्रक्रिया में <br>
हम कब एक दूसरे के आलिंगन में आ जाते है <br>
ये तो हम भी नहीं जान पाते<br>
बस बोसा के प्रतिकार में बोसा<br>
घबराहट ऐसे होती है कि<br>
अपनी सांसों की आवाज़ भी बोलती नज़र आती है<br>
शब्द भी शरमा जाते है<br>
मानों मुझसे बिना पूछे ही ले लिया हो प्रतिकार<br>
मैं देखती हूं तुम्हें और लगता है कि<br>
देखती ही रहूं।</b></p>
<p dir="ltr"><b> पर तुम ठहरे <br>
प्रेमी स्वभाव के <br>
कुछ वक्त लेकर<br>
मुस्कुराकर<br>
करने लगते हो <br>
प्रेम <br>
तुम्हारा स्पर्श <br>
तुम्हारे बोलने भर से ही<br>
मैं नदी बन जाती हूं<br>
प्रेम में नदी <br>
समुद्र तुममें <br>
अन्ततः मिल जाती हूं<br>
तब नदी नदी नहीं <br>
वो समुद्र हो जाती है<br>
यानि मैं, मैं नहीं <br>
हम हो जाते है।</b></p><p dir="ltr"><b>विभा परमार<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
<br>
</b></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh39xd4mE4f_MjsbDhaFzCGf7OwHc5CZyyFrNzxmlLWT3spPDbhVIX7G9buDP7SsP4R8PWgOF_IxZZ__3-j63FeABbKsoDo-FizQHGv5-mJmVhnWqYlvmhRjYlI67VlPZrNhkstu2XToX0/s1600/IMG20181018090327.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><b> </b><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh39xd4mE4f_MjsbDhaFzCGf7OwHc5CZyyFrNzxmlLWT3spPDbhVIX7G9buDP7SsP4R8PWgOF_IxZZ__3-j63FeABbKsoDo-FizQHGv5-mJmVhnWqYlvmhRjYlI67VlPZrNhkstu2XToX0/s640/IMG20181018090327.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-58357423630676512142018-09-08T22:07:00.001-07:002018-09-08T22:07:15.220-07:00आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती<p dir="ltr">हम एक दूसरे के हिस्से उतने ही आ पाते है जितना हम सिर्फ़ चाहते है, या फिर महज़ अपना अपना ध्यान बटाना चाहते है, कहने के लिए हम एक समय वक्त से भी ज्यादा वक्त एक दूसरे को दे देते है, कहने के लिए हमारा एक दुख उसका और उसका एक सुख हमारे दुख को ख़त्म करता नज़र आता है, हम इतना मशगूल हो जाते है आपस में कि हमारी एक एक गतिविधियां तक की ख़बर उसको हो जाती है, घर, परिवार और वहां घटने वाली घटनाएं भी अपनी सी प्रतीत होने लगती है, हम बात करते है ख़ूब बात करते है पहले हम पंसदीदा मुद्दों पर बोलते है, फिर धीरे धीरे व्यक्तिगत पर बोलते है और फिर व्यक्ति पर बोलना शुरू कर देते है, हम उससे जुड़ी हर चीज़ पर छानबीन करने लगते है, हम पहले से ज्यादा ही ईमानदार हो जाते है मगर किसके लिए और कब तक?<br>
हमारे बीच जानने की प्रक्रिया तक ही वक्त लगता है जानने के बाद हम बेपरवाह हो जाते है इतने कि हमें कुछ भी समझ नहीं आता,हमें लगने लगता है कि यही मानवीय व्यवहार है, यही होता आया है और आगे भी यही होगा पर वाकई क्या ये सब सही है? हमें आखिर क्यूं नहीं हो पाती इन सबकी आदत, बदलाव की,व्यवहार की,<br>
हम अपने अपने रिश्तों में ना जाने कौन सा दर्शन खोजने लगते है, हम क्यूं हमेशा बोलने तक ही बंध जाते है, और एक वक्त के बाद हम आपस में ही झिझक जाते है, बात करने से पहले ही अपने आप से प्रश्न करने लगते है बात करनी चाहिए या नहीं, इन्तज़ार करना चाहिए या नहीं, हाल लेना चाहिए या नहीं,कभी कभी इतने अद्भुत बन जाते है कि महसूस होने लगता है नहीं हम वो नहीं या ये वो नहीं, एक दूसरे को सही ठहराकर अपने आप से घृणा करने लगते है जबकि इन सबके बीच हमारी मनोदशा कुछ और ही होती है लेकिन कुछ कह पाना और कुछ सुन पाना बेवजह लगता है, हमें लगने लगता है कि हम शून्य और ठहर चुके है पर उस बीच ये भूल चुके होते है कि ये शून्यता और ठहराव हमारे अंदर आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती है!</p>
<p dir="ltr">विभा परमार </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibubZr9_sj_uaoidG4-rUcOyg0xrO9oG2LxHjDtvW34j9JE1v5Rk6BVMceJao0HMdCGrWQXGn_3NS2gfFRQkYWrxA7muxbh7hPwW5C6Bby1WKHlroEH5sj9cvuZ-Col_EGLmsyKcgsGq4/s1600/IMG20180907091649.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibubZr9_sj_uaoidG4-rUcOyg0xrO9oG2LxHjDtvW34j9JE1v5Rk6BVMceJao0HMdCGrWQXGn_3NS2gfFRQkYWrxA7muxbh7hPwW5C6Bby1WKHlroEH5sj9cvuZ-Col_EGLmsyKcgsGq4/s640/IMG20180907091649.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-11171754641750196142018-09-08T06:29:00.001-07:002018-09-08T06:29:12.512-07:00आदमखोर<p dir="ltr">कभी-कभी छोड़ देना चाहती हूं<br>
उन लोगों<br>
उन जगहों<br>
उन बातों को <br>
जिनके होने भर से असहनीय भार सा महसूस होता है<br>
कभी-कभी उन सपनों को भूल जाना चाहती हूं.<br>
जो सिर्फ़ भ्रम पैदा करते है<br>
जिनका असर सुबह से दोपहर तक बरकरार रहता है</p>
<p dir="ltr">लगता है ,अब मैं इनके भार से दब चुकी हूं<br>
झुक चुकी हूं <br>
बिल्कुल वैसे <br>
जैसे <br>
एक उम्र के बाद बूढ़े की रीढ़ की हड्डी <br>
झुक जाया करती है</p>
<p dir="ltr">इन वजहों से अब शब्द घुटने लगे है <br>
और एक घुटन के बाद <br>
आदमखोर का रूप रखकर <br>
पहले से भरे पन्नों पर कहर बरपाते है<br>
जिसका सन्नाटा कोरे पड़े पन्नों पर दिखाई पड़ता है।</p>
<p dir="ltr">विभा परमार</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnS06C_OC8-bk3DLSs9hEQb6b2fLqQdZzlKbUuA_4uFuG4fEIBbeZ6kbgVTXMI0o4iGgvf540pk0pXw8sajwR-VVf498WIdRUAnT6JUrlxAd4KJeQsPdr75DByLiOCFslW-HrhT5JPnHI/s1600/esclavitud.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnS06C_OC8-bk3DLSs9hEQb6b2fLqQdZzlKbUuA_4uFuG4fEIBbeZ6kbgVTXMI0o4iGgvf540pk0pXw8sajwR-VVf498WIdRUAnT6JUrlxAd4KJeQsPdr75DByLiOCFslW-HrhT5JPnHI/s640/esclavitud.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-66887813965106436862018-09-02T13:50:00.001-07:002018-09-02T13:50:24.023-07:00लूटेरा फ़िल्म<p dir="ltr">ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर आधारित फ़िल्म "लूटेरा" विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में बनी है। <br>
क्या कहें दो दिन से इस फ़िल्म का खुमार चढ़ा हुआ है।<br>
50वें दशक के समय को जीवंत करती लूटेरा फ़िल्म ने वाकई मेरे दिल में एक जगह बना ली है।<br>
बाबा ,बेटी और वो लूटेरा!<br>
फ़िल्म देखकर मन बहुत भारी हो गया, गला भर आया देखकर कि हम प्रेम में इतना ऊपर उठ जाते है कि हमारे सामने हमारा प्रेम अगर खड़ा हो जाए दोषी रहते हुए, उसे हमारा सज़ा देना कूबूल होगा पर किसी और से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो उसे कष्ट पहुंचाए,<br>
कुछ ऐसा ही रहा पाखी और वरूण का प्रेम<br>
बहुत ही आराम लेता है इनका प्रेम मानों इक लंबी गहरी नींद में चला गया हो ,ऐसा महसूस होता है कि, <br>
दोनों एक स्टेज पर आकर अलग तो हो गए, मगर पता नहीं क्यूं एक दूसरे में हमेशा के लिए खो गए हो।<br>
कैसा महसूस हुआ होगा जब पाखी को वरूण से प्रेम हुआ था मानों एक ही बार में अपनी गतिविधियों से उस पर अपना अधिकार जमा रही हो ,बाइक और कार की टक्कर, सिर्फ़ टक्कर नहीं थी, ये तो शुरुआत थी उन दोनों के बीच की टक्कर की,<br>
पाखी के घर में वरूण की दस्तक से ही पाखी कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ कह रही थी, रोज़ टकटकी लगाकर उसको देखना, फिर अचानक बाबा से बोलना पेंटिंग सीखना है, पेंटिंग वो भी वरूण से सीखना जिसको पेंटिंग का पी तक बनाना नहीं आता, <br>
चित्रकारी की क्लास का पहला दिन पाखी का नर्वस होते हुए जाना कभी कभी देखकर लगता कि थोड़ी सी चंचल है बस बाहर से ही गंभीर नज़र आती है, उधर वरूण का चित्रकारी को लेकर डरते डरते पाखी से पूछना (बहुत फनी पत्तियां बनाई थी वरूण तुमने) जब हम प्रेम में होते है तो जाने क्यूं हम अपने प्रेमी को मना नहीं कर पाते आखिर वो क्या चीज़ें रह रह कर लौटती है कि देखने भर से ही,समय बिताने भर से ही, बात करने भर से सब कुछ नदी की तरह बहने लगता है, और एक दिन वरूण चला जाता है, क्यूंकि वो तो एक लूटेरा था, पर हां वो लूटेरा सिर्फ़ लूटेरा नहीं प्रेमी भी था।<br>
जब गया तो सब कुछ ले गया अपने साथ पाखी की मुस्कुराहट,आंखों की चमक, उसका श्रृंगार, बाबा का जीवंत साथ (वरूण का ये रूप बाबा झेल नहीं पाए धोखाधड़ी उनकी मौत हो जाती है)<br>
छोड़ गया बस चारों ओर बर्फ ही बर्फ, अब लगता है इन नज़रों को दिन में भी अंधेरा नज़र आता है, ये रोज़ होने वाली सुबह भी शाम नज़र आती है। आत्मा <br>
भारी और भरी है इतना कि अब आसूं बहते नहीं, <br>
बाबा की मौत के बाद बस उनकी तोता वाली कहानी याद रहती है, नफ़रत ऐसी होती है कि जितना लिखती हूं उससे ज्यादा लिखकर फाड़कर ज़मी पर फेंक देती हूं,<br>
अधिकतर अपनी कुर्सी पर बैठी रहती हूं सब महसूस होता है ,सारे भाव आते है पर मैं अडिग अपने एक भाव पर टिकी हूं, उठकर दरीचों से ढांकती हूं उस पेड़ को जिस पर बर्फ़ जम रही है और पत्तें झर रहे है, अपनी ज़िदगी भी शायद ऐसी ही है , इन पत्तों की तरह रोज़ भाव झरते है सिवाय एक के ,बर्फीला आवरण ठहर गया तबसे।<br>
होश में होने के बाद भी होश नहीं रहता, मानों अब घड़ी घड़ी मौत का इन्तज़ार! <br>
तुम क्यूं लौट आए वरूण ,क्यूं ? ये देखने के लिए की मैं तुम्हारे बिना कैसे रहती हूं, कैसे जीती हूं ,बोलो और अब तुम इतना प्रेम दिखाकर साबित क्या करना चाहते हो, कोई मतलब नहीं तुमसे पर पर जब तुमने कहां कि पुलिस को बुला सकती हो मुझे पकड़वा सकती हो तो फिर वो कौन सी चीज़ बाकी रह गई थी मुझमें कि मैं कई दफ़ा कोशिशों के बाद भी पुलिस को नहीं बता पाई कि तुम यहीं मेरे पास ठहरे हुए हो!!!!! <br>
आखिर क्यूं<br>
क्या प्रेम इतना हावी रहता है!!!!</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtnjU4nZb22etmAiPV_1ullyIWQXbAU3o8Zgi4XSAwELeSpspz8od7XkhY138WA2vf3A2WTf44toxAkwAvrNTOMumvlhsTF8TJufj6xmdwIZFFditMhrScgisxyPHbIzZszZKP_zFW5_A/s1600/images+%25282%2529.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtnjU4nZb22etmAiPV_1ullyIWQXbAU3o8Zgi4XSAwELeSpspz8od7XkhY138WA2vf3A2WTf44toxAkwAvrNTOMumvlhsTF8TJufj6xmdwIZFFditMhrScgisxyPHbIzZszZKP_zFW5_A/s640/images+%25282%2529.jpeg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-40083627216420537762018-08-25T04:59:00.001-07:002018-08-25T05:08:23.744-07:00प्रिय<p dir="ltr">जाने कब से <br>
मैं और तुम <br>'हम' जैसे भारी शब्दों में तब्दील हो गए</p><p dir="ltr">
शायद<br>
इक अधूरी तबाही के बाद</p><p dir="ltr"><br>
सुनो प्रिये!<br>
अब मैं </p><p dir="ltr"><span style="font-family: sans-serif;">दर-दर भटकना नहीं चाहती</span><br>
उन प्रेत आत्माओं की तरह </p><p dir="ltr">जो <br> इन्तज़ार, बेचैनी, कसक, टीस <br> और <br>
कुछ फ़रेबी ख़्वाबों को संजो कर</p><p dir="ltr">शमशान में हुआं हुआं करती फिरती है </p><p dir="ltr">जिनकी हुआं में अटल रहता है </p><p dir="ltr">विरह।</p><p dir="ltr">
मैं विचरना चाहती हूं <br>
निरंतर तुममें <br>
तुम्हारी <br>
प्रेम शिराओं में <br>
बिल्कुल वैसे ही <br>
जैसे <br>
पल-पल बहता है रक्त <br>
शरीर की शिराओं में</p>
<p dir="ltr">विभा परमार<br><br></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgviy6cFCKZ6vHkoIxH2dQ42jEcmcypc0ZPTg55WPuNPdPZ1dScyU5-3IE5f5nI1lF63MyM5a5wlWjiRiuTaJh-xE2Dd1QI1Ue0dGH-C1l4YD4wdbSzfEb1tQBSZveH5z6gNaYC1eUjcog/s1600/IMG_20180825_172615_644.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgviy6cFCKZ6vHkoIxH2dQ42jEcmcypc0ZPTg55WPuNPdPZ1dScyU5-3IE5f5nI1lF63MyM5a5wlWjiRiuTaJh-xE2Dd1QI1Ue0dGH-C1l4YD4wdbSzfEb1tQBSZveH5z6gNaYC1eUjcog/s640/IMG_20180825_172615_644.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-31991057973627602122018-08-14T02:21:00.001-07:002018-08-14T02:21:34.012-07:00जाने<p dir="ltr">जाने<br>
मन में कैसी प्रलय चलती है<br>
सुबह से दोपहर<br>
दोपहर से सांझ<br>
और सांझ से आधी रात<br>
हां<br>
क्यूंकि आधी रात के बाद तुम मेरे पास आ ही जाते हो<br>
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए <br>
और शायद मैं भी तुमको आने देती हूं!<br>
तुम जगा कर घंटों <br>
मेरी ज़ुल्फ़ों से खेलते रहते हो <br>
बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह <br>
और मैं तुम्हें देखकर लजाती रहती हूं<br>
परवाज़ सुनो<br>
तुम्हारे देखने भर से ही मैं<br>
शिथिल हो जाती हूं<br>
मेरी देह कुछ क्रिया नहीं करती <br>
देह तुम्हारा ही नाम जपती है बार बार<br>
रह- रह कर मेरी मनोदशा को देखकर तुम<br>
झठ से अपनी कसी बांहों में भर लेते हो <br>
फिर महसूस होता है कि <br>
तुमने अपनी बांहों में भरकर<br>
मुझे मेरी देह से मुक्त कर दिया हो<br>
उस वक्त प्रगाढ़ वासना में लिप्त तुम<br>
मुझे अनन्त चुंबन देते हो<br>
मैं फिर लजा जाती हूं<br>
बेसुध मन ,तन और आत्मा से!<br>
</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhebmnA3n4pQnYDhF9bykye6EK-TI6oDcYlobY8BC-9wiiDh3_5YtEtqej_7EP-qn2hh-umSDjcGDhCfXZdrbfsoO8LgCWngv47TBhYyqgZhUQk2-OXva4hQ0pUwdhZj3SFngYMRDinV0M/s1600/images+%25281%2529.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhebmnA3n4pQnYDhF9bykye6EK-TI6oDcYlobY8BC-9wiiDh3_5YtEtqej_7EP-qn2hh-umSDjcGDhCfXZdrbfsoO8LgCWngv47TBhYyqgZhUQk2-OXva4hQ0pUwdhZj3SFngYMRDinV0M/s640/images+%25281%2529.jpeg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196991477062973899.post-26524326231393245162018-08-14T01:21:00.001-07:002018-08-14T01:21:31.571-07:00मनोस्थितियां<p dir="ltr">कभी कभी स्थितियों से ज्यादा <br>
मनोस्थितियां विचलित कर देती है और इसका विचलनपन धीरे धीरे अपने ग्रास में लेता रहता है, चौबीस घंटो का ये सफ़र कभी कभी व्यर्थ सा प्रतीत होता है, इसमें ना किसी से बात करने को जी चाहता और ना किसी को सुनने का ही मन रहता है। मन की मनोस्थिति एक एक पहर व्यथित करती है जाने ये किस अवसाद की तरफ इशारा करती है! <br>
ये विवश करती है मेरे जन्म को या यूं कहें निर्रथक जन्म को लेकर। कि आखिर मेरा जन्म किसलिए हुआ ? सिर्फ़ उम्र काटने के लिए , रिश्ते बनाने के लिए, ज़िम्मेदारी उठाने के लिए, आखिर इस जन्म का सिर्फ़ यही उद्देश्य है? <br>
मैं अब समझ नहीं पाती या मेरी इतनी समझ है ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं, खुद का होना व्यर्थ का होना लगता है, अगर जन्म पर प्रश्नचिन्ह लग जाए तब आभास होता है कि बहुत बड़ा संकट है बहुत बड़ा, इससे निकलना ज़रूरी है वरना ये निरर्थकता कहीं मेरा कर्म तो नहीं बन जाएगा? <br>
छटपटाहटें जिंदगीभर के लिए मेरे अंदर घर ना बना ले, मैं नकारात्मकताओं की झाड़ियों सी रोज़ ही घायल रहती हूं,<br>
देखती हूं कि दुनायवी संसार में सबकुछ आसान कर दिया है अच्छाई और बुराई जैसी शायद कोई चीज़ नहीं बची इन दोनों के बीच की रिक्तता में अच्छा और बुरा जैसा पानी बहने लगा है? आज कुछ भी घटित होता है और उस घटित घटनाओं से भाव भी कुछ भी लिख जाता है, चारों तरफ रोशनी ही रोशनी है इतनी कि जिसका सामना मेरी सायं सी आंखें भी नहीं कर पाती है, विचारों के भ्रमजाल में मैं और मेरा अस्तित्व फंसता जा रहा है, और ये अस्तित्व निकलना नहीं चाहता, क्या कर्म और क्या कुकर्म है ऐसी मनोस्थिति में मैं खुद का भी सामना करने में असहाय सा महसूस करती हूं!<br>
ओ मेरे प्रभु जाने तुम किस दूरी पर हो जिसे शायद मैं दिखाई नहीं दे रही, मेरी ना की जाने वाली प्रार्थनाएं सुनाई नहीं दे रही है, मैंने भी अब थककर तुम्हें पुकारना बंद कर दिया है, बस शिथिलता से खुद को शांत करने की जुगत में जूझ रही हूं! इन सबके बावजूद भी कुछ और घटित होता है उससे मेरी समझ और अशांत और शांत सी हो जाती है <br>
प्रेम! जाने इस विषय पर आकर मेरे अंदर उत्साह का ऐसा संचार होता है जिसमें सही और ग़लत जैसा कुछ महसूस नहीं हो पाता क्षणिक तुम्हारा स्पर्श चरम स्पर्श मेरा रोम रोम खोल देता है फिर दूसरे ही पल मेरा रोम रोम छिन्न भिन्न सा महसूस होने लगता है। वाकई मैं नहीं जानती प्रेम करने के क्या मायने होते है, मैं नहीं जानती प्रेम में क्या विवशताएं और क्या आज़ादी होती है, मैं नहीं जानती प्रेम की शुरुआत और प्रेम की चरमसीमा क्या होती है, मैं नहीं जानती कि प्रेम की संपूर्णता किसमें और किस इंसान में होती है, मैं नहीं जानती कि इसका भटकाव का खात्मा किस धुरी पर जाकर होता है, जानती हूं तो सिर्फ़ इतना कि प्रेम बस प्रेम होता है, प्रेम कोई विश्लेषण नहीं, प्रेम कोई कयास नहीं होता, लेकिन ये मन और मन की मनोस्थिति के बीच मैं फांस सा महसूस करती हूं जिसकी चुभन मुझे अडिगता प्रदान नहीं करने दे रही है, मैं डूब भी रही हूं और उभर भी रही हूं पर एक अटलता ,स्थिरता नहीं ला पा रही इस मायारूपी जीवन में!<br>
व्याकुलताएं लौट लौट आती है, और विचार बदल बदल जाते है, मन में ग्लानि तो नहीं लेकिन इसमें कुछ समझ नहीं आता <br>
क्या ये सिर्फ़ विलासिता है? क्या दोनों के सपने का असर है जिसमें तुम और मैं सिर्फ़ एक दूसरे को धारण करने की कोशिश करते है? और कुछ नहीं <br>
तुम संभोग और मैं प्रेम की तरफ अग्रसर होते है, हम लंबे वक्त में भी एक पल के लिए एक दूसरे को धारण करने का विचार कर लेते है! उसमें तुम और मैं अलग अलग नहीं एक होते है तुम्हारे और मेरे हाथ,तुम्हारे पैर और मेरे पैर, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी उत्तेजना और मेरी उत्तेजना, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी छाती और मेरी छाती, तुम्हारा मन और मेरा मन पर आत्मा आत्मा इसका मिलन इसका वरण आखिर क्यूं असफल हो जाता है? मैं तुम्हारे पास आते आते ,तुममें समाते समाते कहां चली जाती हूं? मेरी मनोस्थिति आखिर क्यूं नहीं साथ देती और मैं सायं सायं सी हूंकने लगती हूं ,मैं खोजने लगती हूं संभोग में भी तुममें अपने लिए प्रेम, सोचने लगती हूं उन भगवानों को जिनकी भार्या रहती हैं सदा उनकी बायीं तरफ, इसमें (#अग्नि से सीता तक की लाइन योगेश्वर सर की ली)जैसे अग्नि के साथ स्वाहा,कामदेव के साथ रति, शिव के साथ पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता!<br>
इतना सोचते ही हो जाती हूं तुमसे और तुम्हारे जिस्म से दूर, लेकिन दूर होने भर से मेरी आसक्ति तुममें बनी रहती है, और वापस विचरनें लगती हूं अपनी मनोस्थितियों में।</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlndWTDS06XV9iPYOoT92SGQP4y7cfDMZdUCzOTeZMOO-vZaZnlOnvwGOiSjW2x6qWqUzSfuyHMtuvrMRVDu8OBuKNSo4PZ8oaj6DKeZmHqYLId8u6LMDIAt-5kqfO-3EjgYWBEpCk6sQ/s1600/IMG_20180814_135019.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlndWTDS06XV9iPYOoT92SGQP4y7cfDMZdUCzOTeZMOO-vZaZnlOnvwGOiSjW2x6qWqUzSfuyHMtuvrMRVDu8OBuKNSo4PZ8oaj6DKeZmHqYLId8u6LMDIAt-5kqfO-3EjgYWBEpCk6sQ/s640/IMG_20180814_135019.jpg"> </a> </div>विभा परमार ,कवयित्री, थिएटर आर्टिस्ट,पत्रकारhttp://www.blogger.com/profile/07416213767098449131noreply@blogger.com0