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Saturday 25 August 2018

प्रिय

जाने कब से
मैं और तुम
'हम' जैसे भारी शब्दों में तब्दील हो गए

शायद
इक अधूरी तबाही के बाद


सुनो प्रिये!
अब मैं 

दर-दर भटकना नहीं चाहती
उन प्रेत आत्माओं की तरह 

जो 
 इन्तज़ार, बेचैनी, कसक, टीस
 और
कुछ फ़रेबी ख़्वाबों को संजो कर

शमशान में हुआं हुआं करती फिरती है 

जिनकी हुआं में अटल रहता है 

विरह।

मैं विचरना चाहती हूं
निरंतर तुममें
तुम्हारी
प्रेम शिराओं में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे
पल-पल बहता है रक्त
शरीर की शिराओं में

विभा परमार

Tuesday 14 August 2018

जाने

जाने
मन में कैसी प्रलय चलती है
सुबह से दोपहर
दोपहर से सांझ
और सांझ से आधी रात
हां
क्यूंकि आधी रात के बाद तुम मेरे पास आ ही जाते हो
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए
और शायद मैं भी तुमको आने देती हूं!
तुम जगा कर घंटों
मेरी ज़ुल्फ़ों से खेलते रहते हो
बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह
और मैं तुम्हें देखकर लजाती रहती हूं
परवाज़ सुनो
तुम्हारे देखने भर से ही मैं
शिथिल हो जाती हूं
मेरी देह कुछ क्रिया नहीं करती
देह तुम्हारा ही  नाम जपती  है बार बार
रह- रह कर  मेरी मनोदशा को देखकर तुम
झठ से अपनी कसी बांहों में भर लेते हो
फिर महसूस होता है कि
तुमने अपनी बांहों में भरकर
मुझे मेरी देह से मुक्त कर दिया हो
उस वक्त प्रगाढ़ वासना में  लिप्त तुम
मुझे अनन्त चुंबन देते हो
मैं फिर लजा जाती हूं
बेसुध मन ,तन और आत्मा से!

मनोस्थितियां

कभी कभी स्थितियों से ज्यादा
मनोस्थितियां विचलित कर देती है और इसका विचलनपन धीरे धीरे अपने ग्रास में लेता रहता है, चौबीस घंटो का ये सफ़र कभी कभी व्यर्थ सा प्रतीत होता है, इसमें ना किसी से बात करने को जी चाहता और ना किसी को सुनने का ही मन रहता है। मन की मनोस्थिति एक एक पहर व्यथित करती है जाने ये  किस अवसाद की तरफ इशारा करती है!
ये विवश करती है मेरे जन्म को या यूं कहें निर्रथक जन्म को लेकर।  कि आखिर मेरा जन्म किसलिए हुआ ? सिर्फ़ उम्र काटने के लिए , रिश्ते बनाने के लिए, ज़िम्मेदारी उठाने के लिए, आखिर इस जन्म का सिर्फ़ यही उद्देश्य है?
मैं अब समझ नहीं पाती या मेरी इतनी समझ है ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं, खुद का होना  व्यर्थ का होना लगता है, अगर जन्म पर प्रश्नचिन्ह लग जाए तब आभास होता है कि बहुत बड़ा संकट है बहुत बड़ा, इससे निकलना ज़रूरी है वरना ये निरर्थकता कहीं मेरा कर्म तो नहीं बन जाएगा?
छटपटाहटें जिंदगीभर के लिए मेरे अंदर घर ना बना ले, मैं नकारात्मकताओं की झाड़ियों सी रोज़ ही घायल रहती हूं,
देखती हूं कि दुनायवी संसार में सबकुछ आसान कर दिया है   अच्छाई और बुराई जैसी शायद कोई चीज़ नहीं बची इन दोनों के बीच की रिक्तता में अच्छा और बुरा जैसा पानी बहने लगा है? आज कुछ भी घटित होता है और उस घटित घटनाओं से भाव भी कुछ भी लिख जाता है, चारों तरफ रोशनी ही रोशनी है इतनी कि जिसका सामना मेरी सायं सी आंखें भी नहीं कर पाती है, विचारों के भ्रमजाल में मैं और मेरा अस्तित्व फंसता जा रहा है, और ये अस्तित्व निकलना नहीं चाहता, क्या कर्म और क्या कुकर्म है ऐसी मनोस्थिति में मैं खुद का भी सामना करने में असहाय सा महसूस करती हूं!
ओ मेरे प्रभु जाने तुम किस दूरी पर हो जिसे शायद मैं दिखाई नहीं दे रही, मेरी ना की जाने वाली प्रार्थनाएं सुनाई नहीं दे रही है, मैंने भी अब थककर तुम्हें पुकारना बंद कर दिया है, बस शिथिलता से खुद को शांत करने की जुगत में जूझ रही हूं! इन सबके बावजूद भी कुछ और घटित होता है उससे मेरी समझ और अशांत और शांत सी हो जाती है
प्रेम! जाने इस विषय पर आकर मेरे अंदर उत्साह का ऐसा संचार होता है जिसमें सही और ग़लत जैसा कुछ महसूस नहीं हो पाता  क्षणिक तुम्हारा स्पर्श चरम स्पर्श मेरा रोम  रोम खोल देता है फिर दूसरे ही पल मेरा रोम रोम छिन्न भिन्न सा महसूस होने लगता है। वाकई मैं नहीं जानती प्रेम करने के क्या मायने होते है, मैं नहीं जानती प्रेम में क्या विवशताएं और क्या आज़ादी होती है, मैं नहीं जानती प्रेम की शुरुआत और प्रेम की चरमसीमा क्या होती है, मैं नहीं जानती कि प्रेम की संपूर्णता किसमें और किस इंसान में होती है, मैं नहीं जानती कि इसका भटकाव का खात्मा किस धुरी पर जाकर होता है, जानती हूं तो सिर्फ़ इतना कि प्रेम बस प्रेम होता है, प्रेम कोई विश्लेषण नहीं, प्रेम कोई कयास नहीं होता, लेकिन ये मन और मन की मनोस्थिति के बीच मैं फांस सा महसूस करती हूं जिसकी चुभन मुझे  अडिगता प्रदान नहीं करने दे रही है,  मैं डूब भी रही हूं और उभर भी रही हूं पर एक अटलता ,स्थिरता नहीं ला पा रही इस मायारूपी जीवन में!
व्याकुलताएं लौट लौट आती है, और विचार बदल बदल जाते है, मन में ग्लानि तो  नहीं लेकिन इसमें कुछ समझ नहीं आता
क्या ये सिर्फ़ विलासिता है? क्या दोनों के सपने का असर है जिसमें तुम और मैं सिर्फ़ एक दूसरे को धारण करने की कोशिश करते है? और कुछ नहीं
तुम संभोग और मैं प्रेम की तरफ अग्रसर होते है, हम लंबे वक्त में भी एक पल के लिए एक दूसरे को धारण करने का विचार कर लेते है!  उसमें तुम और मैं अलग अलग नहीं एक होते है तुम्हारे और मेरे हाथ,तुम्हारे पैर और मेरे पैर, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी उत्तेजना और मेरी उत्तेजना, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी छाती और मेरी छाती, तुम्हारा मन और मेरा मन पर आत्मा आत्मा इसका मिलन इसका वरण आखिर क्यूं असफल हो जाता है? मैं तुम्हारे पास आते आते ,तुममें समाते समाते कहां चली जाती हूं? मेरी मनोस्थिति आखिर क्यूं नहीं साथ देती और मैं सायं सायं सी हूंकने लगती हूं ,मैं खोजने लगती हूं संभोग में भी तुममें अपने लिए प्रेम, सोचने लगती हूं उन भगवानों को जिनकी भार्या रहती हैं सदा उनकी बायीं तरफ,  इसमें (#अग्नि से सीता तक की लाइन योगेश्वर सर की ली)जैसे अग्नि के साथ स्वाहा,कामदेव के साथ रति, शिव के साथ पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता!
इतना सोचते ही हो जाती हूं तुमसे और तुम्हारे जिस्म से दूर, लेकिन दूर होने भर से मेरी आसक्ति तुममें बनी रहती है, और वापस विचरनें लगती हूं अपनी मनोस्थितियों में।

Monday 13 August 2018

कमरा


मैं देखती हूं उस कमरे को जिस पर लगा है बरसों से ताला आज मन में आया कि इस ताले को कुछ देर आराम दिया जाए, मैंने ताले को खोलकर दरवाज़े को धक्का दिया और देखा ,उस कमरे को जिसमें एक बैड है उस पर अबतक चादर बिछी हुई है, और हां कोई सिलवट भी नहीं, एक अलमारी भी है  जिस पर आईना लगा हुआ है, आईना साफ़ नहीं है धुंधला चुका है धूल से, कमरे में पुराने गानों की गुनगुनाहट नहीं होती अब सायं सायं की आवाज़ें गूंजती है, दीमकें खा रही है धीरे धीरे फर्नीचर,
हां एक सोफ़ा भी है जिस पर मैं अक्सर गुस्सा होकर बैठ जाया करती थी और कहती थी गुस्से में कि मैं नहीं सिखला सकती हूं कि प्रेम कैसे होता है?और ना ही बतला सकती हूं कि प्रेम आखिर होता क्या है, प्रेम का उत्सव कैसे मनाया जाता है,  बस लगता था कि  प्रेम क्या, कैसे  और मनाने के बीच की एक डोर है, जिसने बांध रखा है हम लोगों को।
मैं फिर देखती हूं उस कमरे में रखी हर छोटी छोटी चीज़ को जिनका साथ सदियों से तुम्हारे साथ चला आ रहा हो, पुरानी डायरी,पुराने पेन जिसकी इंक लगभग ख़त्म हो चुकी हो, आईना, फर्नीचर, अलमारी में टंगे हैंगर, ये सब, ये सब  तुम्हारे साथ पहले भी थे और अब भी, इनका साथ बिल्कुल वैसा ही रहा जैसे एक हाथ का दूसरे हाथ का साथ, ये बोल नहीं सकते, पर साथ निभा जाते है, और मैं! बस मैं ही रही, मेरी दस्तक से ये  सब कुछ देर के लिए सकपकाए असहज ज़रूर हुए पर फिर सब सहजता में बदल गया।जाने  मैं से हम कब बन गए ये तो हममें से किसी को भी  नहीं मालूम!
तुम्हारा जाना! अचानक से जाना! उफ्फ विचलित होने के साथ आजीवन के लिए मुझे और इन सबको तन्हा छोड़ गया, देखो! अब तुम भी देखो इस कमरे में मौजूद हो पर इन सबकी तरह बोल नहीं पाते, तुम्हारी आहटें जाने कब से नहीं सुनी, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी देह की गंध ये सब स्मृति में बंद है, मेरी हिम्मत नहीं होती इस कमरे में आने की पर ,पर मैं क्या करूँ ये कमरा कमरा नहीं खाईं है प्रेम की जिसमें हम दोनों डूबे रहे,साथ ही ये सब भी ,देखो ना!
अब तुम भी इस कमरे में मौजूद हो बैड के पास रखी मुस्कुराती फोटो में!
शेष फिर!