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Tuesday 14 August 2018

जाने

जाने
मन में कैसी प्रलय चलती है
सुबह से दोपहर
दोपहर से सांझ
और सांझ से आधी रात
हां
क्यूंकि आधी रात के बाद तुम मेरे पास आ ही जाते हो
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए
और शायद मैं भी तुमको आने देती हूं!
तुम जगा कर घंटों
मेरी ज़ुल्फ़ों से खेलते रहते हो
बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह
और मैं तुम्हें देखकर लजाती रहती हूं
परवाज़ सुनो
तुम्हारे देखने भर से ही मैं
शिथिल हो जाती हूं
मेरी देह कुछ क्रिया नहीं करती
देह तुम्हारा ही  नाम जपती  है बार बार
रह- रह कर  मेरी मनोदशा को देखकर तुम
झठ से अपनी कसी बांहों में भर लेते हो
फिर महसूस होता है कि
तुमने अपनी बांहों में भरकर
मुझे मेरी देह से मुक्त कर दिया हो
उस वक्त प्रगाढ़ वासना में  लिप्त तुम
मुझे अनन्त चुंबन देते हो
मैं फिर लजा जाती हूं
बेसुध मन ,तन और आत्मा से!

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