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Tuesday 14 August 2018

मनोस्थितियां

कभी कभी स्थितियों से ज्यादा
मनोस्थितियां विचलित कर देती है और इसका विचलनपन धीरे धीरे अपने ग्रास में लेता रहता है, चौबीस घंटो का ये सफ़र कभी कभी व्यर्थ सा प्रतीत होता है, इसमें ना किसी से बात करने को जी चाहता और ना किसी को सुनने का ही मन रहता है। मन की मनोस्थिति एक एक पहर व्यथित करती है जाने ये  किस अवसाद की तरफ इशारा करती है!
ये विवश करती है मेरे जन्म को या यूं कहें निर्रथक जन्म को लेकर।  कि आखिर मेरा जन्म किसलिए हुआ ? सिर्फ़ उम्र काटने के लिए , रिश्ते बनाने के लिए, ज़िम्मेदारी उठाने के लिए, आखिर इस जन्म का सिर्फ़ यही उद्देश्य है?
मैं अब समझ नहीं पाती या मेरी इतनी समझ है ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं, खुद का होना  व्यर्थ का होना लगता है, अगर जन्म पर प्रश्नचिन्ह लग जाए तब आभास होता है कि बहुत बड़ा संकट है बहुत बड़ा, इससे निकलना ज़रूरी है वरना ये निरर्थकता कहीं मेरा कर्म तो नहीं बन जाएगा?
छटपटाहटें जिंदगीभर के लिए मेरे अंदर घर ना बना ले, मैं नकारात्मकताओं की झाड़ियों सी रोज़ ही घायल रहती हूं,
देखती हूं कि दुनायवी संसार में सबकुछ आसान कर दिया है   अच्छाई और बुराई जैसी शायद कोई चीज़ नहीं बची इन दोनों के बीच की रिक्तता में अच्छा और बुरा जैसा पानी बहने लगा है? आज कुछ भी घटित होता है और उस घटित घटनाओं से भाव भी कुछ भी लिख जाता है, चारों तरफ रोशनी ही रोशनी है इतनी कि जिसका सामना मेरी सायं सी आंखें भी नहीं कर पाती है, विचारों के भ्रमजाल में मैं और मेरा अस्तित्व फंसता जा रहा है, और ये अस्तित्व निकलना नहीं चाहता, क्या कर्म और क्या कुकर्म है ऐसी मनोस्थिति में मैं खुद का भी सामना करने में असहाय सा महसूस करती हूं!
ओ मेरे प्रभु जाने तुम किस दूरी पर हो जिसे शायद मैं दिखाई नहीं दे रही, मेरी ना की जाने वाली प्रार्थनाएं सुनाई नहीं दे रही है, मैंने भी अब थककर तुम्हें पुकारना बंद कर दिया है, बस शिथिलता से खुद को शांत करने की जुगत में जूझ रही हूं! इन सबके बावजूद भी कुछ और घटित होता है उससे मेरी समझ और अशांत और शांत सी हो जाती है
प्रेम! जाने इस विषय पर आकर मेरे अंदर उत्साह का ऐसा संचार होता है जिसमें सही और ग़लत जैसा कुछ महसूस नहीं हो पाता  क्षणिक तुम्हारा स्पर्श चरम स्पर्श मेरा रोम  रोम खोल देता है फिर दूसरे ही पल मेरा रोम रोम छिन्न भिन्न सा महसूस होने लगता है। वाकई मैं नहीं जानती प्रेम करने के क्या मायने होते है, मैं नहीं जानती प्रेम में क्या विवशताएं और क्या आज़ादी होती है, मैं नहीं जानती प्रेम की शुरुआत और प्रेम की चरमसीमा क्या होती है, मैं नहीं जानती कि प्रेम की संपूर्णता किसमें और किस इंसान में होती है, मैं नहीं जानती कि इसका भटकाव का खात्मा किस धुरी पर जाकर होता है, जानती हूं तो सिर्फ़ इतना कि प्रेम बस प्रेम होता है, प्रेम कोई विश्लेषण नहीं, प्रेम कोई कयास नहीं होता, लेकिन ये मन और मन की मनोस्थिति के बीच मैं फांस सा महसूस करती हूं जिसकी चुभन मुझे  अडिगता प्रदान नहीं करने दे रही है,  मैं डूब भी रही हूं और उभर भी रही हूं पर एक अटलता ,स्थिरता नहीं ला पा रही इस मायारूपी जीवन में!
व्याकुलताएं लौट लौट आती है, और विचार बदल बदल जाते है, मन में ग्लानि तो  नहीं लेकिन इसमें कुछ समझ नहीं आता
क्या ये सिर्फ़ विलासिता है? क्या दोनों के सपने का असर है जिसमें तुम और मैं सिर्फ़ एक दूसरे को धारण करने की कोशिश करते है? और कुछ नहीं
तुम संभोग और मैं प्रेम की तरफ अग्रसर होते है, हम लंबे वक्त में भी एक पल के लिए एक दूसरे को धारण करने का विचार कर लेते है!  उसमें तुम और मैं अलग अलग नहीं एक होते है तुम्हारे और मेरे हाथ,तुम्हारे पैर और मेरे पैर, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी उत्तेजना और मेरी उत्तेजना, तुम्हारा जिस्म और मेरा जिस्म, तुम्हारी छाती और मेरी छाती, तुम्हारा मन और मेरा मन पर आत्मा आत्मा इसका मिलन इसका वरण आखिर क्यूं असफल हो जाता है? मैं तुम्हारे पास आते आते ,तुममें समाते समाते कहां चली जाती हूं? मेरी मनोस्थिति आखिर क्यूं नहीं साथ देती और मैं सायं सायं सी हूंकने लगती हूं ,मैं खोजने लगती हूं संभोग में भी तुममें अपने लिए प्रेम, सोचने लगती हूं उन भगवानों को जिनकी भार्या रहती हैं सदा उनकी बायीं तरफ,  इसमें (#अग्नि से सीता तक की लाइन योगेश्वर सर की ली)जैसे अग्नि के साथ स्वाहा,कामदेव के साथ रति, शिव के साथ पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता!
इतना सोचते ही हो जाती हूं तुमसे और तुम्हारे जिस्म से दूर, लेकिन दूर होने भर से मेरी आसक्ति तुममें बनी रहती है, और वापस विचरनें लगती हूं अपनी मनोस्थितियों में।

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