जाने कब से
मैं और तुम
'हम' जैसे भारी शब्दों में तब्दील हो गए
शायद
इक अधूरी तबाही के बाद
सुनो प्रिये!
अब मैं
दर-दर भटकना नहीं चाहती
उन प्रेत आत्माओं की तरह
जो
इन्तज़ार, बेचैनी, कसक, टीस
और
कुछ फ़रेबी ख़्वाबों को संजो कर
शमशान में हुआं हुआं करती फिरती है
जिनकी हुआं में अटल रहता है
विरह।
मैं विचरना चाहती हूं
निरंतर तुममें
तुम्हारी
प्रेम शिराओं में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे
पल-पल बहता है रक्त
शरीर की शिराओं में
विभा परमार
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