कितना अजीब होता है कि
हमें प्रेम भी उनसे रहता है
जो हमें छोड़ देते हैं
एक समय बाद
छोड़ने के बाद लगता है कि
प्रेम में
हम मान लिए जाते हैं
पद दलित
जो सदा-सदा जुटाते रहते हैं
अपने लिए एक-एक पाई!
इस पाई को जुटाने के लिए
हमें कितनी बाधाओं,कितनी प्रताड़नाओं ,कितनी विपरीत स्थितियों से जूझना पड़ता है
बिल्कुल वैसे ही
जैसे जूझता है किसान फसलों को लेकर
सारे मौसमों से!
ये मौसम लगते है सदा दलित(प्रेम) के खिलाफ
जिसे अपने कहर से तोड़ने की करते हैं कोशिश
इस कोशिश में एक समय ऐसा आता है कि
दलित चुन लेता है चुप्पियों का एकांत
जो चुप होकर ,करने लगता है अभिनय प्रसन्न रहने का
क्यूंकि वो जानता है कि
उनके पास नहीं होता है और कोई विकल्प इसके अतिरिक्त
वो बखूबी महसूसते हैं
ये बेबसी,आत्महत्याएं और दोषों के अलावा भी होती है
एक ख़ूबसूरत ज़िंदगी
जिसे ऐसे ही ज़ाया कर देने भर से नहीं मिलेगी आत्मिक संतुष्टि
विभा परमार