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Tuesday 28 September 2021

वाकया

 मुझे याद  नहीं कि आख़िरी बार मेरे सूखे होंठ कब मुस्कुराए थे शायद मैं किसी तृष्णा से सदा भरी रही  जिससे होंठ मुस्कुरा नहीं पाए ,जबकि  मुस्कुराहट की हंसी को मैं भी महसूस करना चाहती थी लेकिन मेरी ये चाहना इक श्राप रही! तुम्हें पता है इन दिनों मैं घर में उगाए गमलों में छोटे-छोटे पौधों के दुखों को सुनती हूं, और वो चिड़िया जिसने अभी -अभी अपना नया  घोंसला बनाया है घर के छज्जे पर उसके गीतों को गुनगुनाती हूं उसके गीतों में उसके पुराने घोंसले और उसके अण्डों के फूटने का दर्द साफ़ झलकता है, उस वक्त मैं समझ नहीं पाती कि आख़िर कैसे उसे उसके खोए बच्चों ,उजड़े घोंसले का सांत्वना दूं, वो चिड़िया अपने विरह गीतों में मेरे सूखे होठों के बारे में पूछती है और मैं उसके पूछने को वहीं छोड़कर अपने कमरे में दौड़ आती हूं,ख़ुद को आईने में देखती हूं और अभिनय करती हूं मुस्कुराने का कि ऐसी कोई तृष्णा ,ऐसी कोई इच्छा ,ऐसा कोई श्राप नहीं जिसने मुझे घेर रखा हो !पर कहीं न कहीं ये सब भी सच ही लगता और कभी कभी ये भी लगने लगता है कि दुख की अदृश्य चादर को ओढ़े रहने से मुझे ये सुख , ये मुस्कुराहटें सब क्षणभंगुर  ही लगते हैं, और ये उदासी मृत्यु तक की यात्रा की साथी!

विभा परमार