मैं दिल में पवित्र भाव लिए बैठी रहती हूं
जिसे कह सकते है हम लोग
"प्रेम"
ये भाव मुझे बार- बार
तुममें विचरने को कहते है
इस विचरने की यात्रा में
हम मिलते है
घंटों साथ रहते है
और और
एक दूसरे निहारते है
इस निहारने की प्रक्रिया में
हम कब एक दूसरे के आलिंगन में आ जाते है
ये तो हम भी नहीं जान पाते
बस बोसा के प्रतिकार में बोसा
घबराहट ऐसे होती है कि
अपनी सांसों की आवाज़ भी बोलती नज़र आती है
शब्द भी शरमा जाते है
मानों मुझसे बिना पूछे ही ले लिया हो प्रतिकार
मैं देखती हूं तुम्हें और लगता है कि
देखती ही रहूं।
पर तुम ठहरे
प्रेमी स्वभाव के
कुछ वक्त लेकर
मुस्कुराकर
करने लगते हो
प्रेम
तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारे बोलने भर से ही
मैं नदी बन जाती हूं
प्रेम में नदी
समुद्र तुममें
अन्ततः मिल जाती हूं
तब नदी नदी नहीं
वो समुद्र हो जाती है
यानि मैं, मैं नहीं
हम हो जाते है।
विभा परमार