मेरा मन ओस की तरह ठंडा है
बिल्कुल ठंडा जाने कैसे....!
मन की ये ठंडक कब से लेकर कब तक रहेगी
इससे बेख़बर हूं
इस बेख़बर में जाने
पलाश के खिलते फूल
अंदर ही अंदर खिल रहे है
जिनकी खुशबू तुम तक पहुंच रही है
या
ये खुशबू कहीं तुम तो नहीं...?
सुनो!
तुम तो नहीं
पर हां
तुम्हारे इश्क की परछाई
मुझमें अब भी विचरण करती है
बिल्कुल वैसे ही
जैसे विचरते है
रात के अंधेरे में "चमगादड़"
विभा परमार
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पर दम निकले,बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले...
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Friday 30 March 2018
ओस
Monday 26 March 2018
आखिरी मंज़िल
सुनो!
क्या तुम बन सकते हो
मेरी
"आखिरी मंज़िल"
क्यूँ कि
आखिरी मंज़िल को पाने में
कभी कोई
विकल्प साथ नहीं देते!
और मैं तुम्हें
विकल्प की श्रेणी में रखकर
प्रेम को "आकर्षण" का नाम
देकर
खुद को या तुमको
भयभीत नहीं करना चाहती
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