मेरा मन ओस की तरह ठंडा है
बिल्कुल ठंडा जाने कैसे....!
मन की ये ठंडक कब से लेकर कब तक रहेगी
इससे बेख़बर हूं
इस बेख़बर में जाने
पलाश के खिलते फूल
अंदर ही अंदर खिल रहे है
जिनकी खुशबू तुम तक पहुंच रही है
या
ये खुशबू कहीं तुम तो नहीं...?
सुनो!
तुम तो नहीं
पर हां
तुम्हारे इश्क की परछाई
मुझमें अब भी विचरण करती है
बिल्कुल वैसे ही
जैसे विचरते है
रात के अंधेरे में "चमगादड़"
विभा परमार
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