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Sunday 13 March 2022

चुना

 वे कठिनाईयां बतलाते रहे ज़िन्दगी की ,ज़रूरतों की 

उन्होंने घूंट पिए शराब के और कश भी लगाए सिगरेट के

उस वक्त गुस्सा किया परिवार पर लगे सामाजिक बंधनों का 

कुछ वक्त जीभर कर गालियां भी दी उन दोस्तों को जो कक्षा में उनसे पीछे रहा करते थे

उन्होंने भावुक होकर बतलाया समाज में घटित घटनाओं  को 

वे कई बार छलके भी  उन फिल्मों को देखकर जिसमें बात कही गई सही और ग़लत की 

  आसान सी कुछ बातें जिसमें सिर्फ़ ज़िंदगी भर साथ चलने को कहा उन्हें दकियानूसी लगी 

उन्होंने सलाहें दी ,झूठ के खिलाफ लड़ने की 

सच के साथ रहने की 

मुझमे कठिनाई भरकर 

 उन्होंने हमसफ़र नहीं बस हमबिस्तर होना चुना!

विभा परमार

छायाचित्र- गूगल से जिसने भी बनाया कमाल बनाया (नाम मालूम नहीं हमें)





Wednesday 9 March 2022

मन का मन

 मैं इक ऐसी दुनिया में चली गई थी जहां वो सबकुछ था जिसके बारे में मैंने अक्सर  फ़िल्मों  ,कहानियों किस्सों में  देखा या पढ़ा था , देख या पढ़कर शरीर में झुरझुरी तो ज़रूर उठती थी मगर ऐसा कभी सोचा नहीं था कि ऐसे फ़िल्मी सीन को एकदफ़ा मैं भी जिऊंगी।


सच कहती हूं मरे हुए लोगों की कविताओं ,कहानियों, विरह को पढ़ने वाली लड़की के हिस्से भी इतने हसीन किस्से दर्ज़ होगें ये तो ज़रूर ईश्वर की दी अनगिनत नेकियों में से ही एक  है,जिसे मैंने ज़बरदस्ती नहीं रचा ,ये तो सबकुछ अपनेआप से घट रहा था 

 वो कहते हैना इंप्रोवाईजे़शन जिसमें प्रकृति ,जगह ,पेड़ पौधे ,घना अंधेरा ,स्थितियां  इंप्रोवाईज़ कर रही थीं।
     तुम तो फ़िल्में भी बनाते हो तो इस पर भी कोई  फ़िल्म बनाओ ना ,सबकुछ तो था इसमें जो एक फ़िल्म में चाहिए रहता है  वरना ये सब तो ज़बरदस्ती क्रिएट करना पड़ता है, ऐसे दृश्यों को डालना पड़ता है जिससे फ़िल्म आगे बढ़े 
एक अंजाना लड़का और एक अजनबी लड़की जिसके बीच  सिर्फ़ साथ सोने और साथ में  खाने तक का ही संबंध था  और  कुछ-कुछ मेरी टूटी फूटी बातें उस पर तुम्हारे जवाब।
कितना अजीब होता हैना कि  बिना संबंध के भी एक संबंध ऐसा जुड़ जाता है जिसमें हम बहुत घनिष्ठ नहीं होते मगर एक ख़ामोश निश्चलता जुड़ ही जाती है 
जब हम वापस लौट रहे थे तब वे सारे दृश्य सामने उभर रहे थे और मेरा इतना मन था कि उनके बारे में तुमसे कहूं लेकिन उस वक्त कई झेंपो ने मुझे रोक रखा था!
  अच्छा क्या तुम भी सोचते हो ऐसा कुछ 
  जैसे जब तुम पहली दफ़ा सोने के लिए आए थे ना 
  तब हम रातभर सोए नहीं थे इक अलग बेचैनी चल रही थी मेरे मन में ,फ़िर पता नहीं कैसे ये बेचैनी  विनम्र आत्मीयता में तब्दील हो गई
  उस वक्त को सोचकर मेरे मन में सवाल आया कि तुमसे पूछूं  और जानूं कि  जितना असहज हमको लगा क्या तुमको भी लगा था ? 
      आख़िर तुम्हारे मन में भी तो कुछ चलता ही होगा ना ?
अगर काम को थोड़ा साइड रख दिया जाए ,
वैसे  इस फ़िल्म को इतना भी अधूरा नहीं होना चाहिए 
अब  सबकुछ तो  पन्नों पर नहीं उतारा  जा सकता है 
 कुछ को सिर्फ़ ऊर्जा और स्थितियों से महसूस किया जा सकता है
  तुम्हें याद है भी  कि नहीं मगर तुम अपनी चिढ़न ,बातें गुस्सा सब बोल जाते थे और हम बस देखते रहते और सोचते  कि तुम्हें वाकई सुना जाना चाहिए, कितना कुछ  बाकी  रह जाता है मन में ,(लेकिन उस पर भी तुम्हारे अपने लॉजिक होंगे)
  अच्छा सुनो ये सब बोलकर हम तुमपे ट्राए नहीं मार रहे 
  पर हम वाकई चाहते हैं कि तुमसे पूछे कि तुमने खाना खाया,  हालांकि तुम ख़ुद से सबकुछ कर ही लेते हो, और इन सबके बीच  तुम क्या कहते हो कि अफेक्शन ना हो ,दूर रहो मुझसे ,मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई नया इंसान नहीं चाहिए
  मतलब इतना सिक्योर करके ख़ुद को चला रहे मानों सबकुछ पहले से जानते हैं कि हमारे बीच सिर्फ़ यही अनहोनी होनी है ,जबकि इसके उलट भी तो  सोचा जा सकता है कि हम लोग बेहतर साबित हों 
  मगर कहां इतना समय ही है ऐसा कुछ उलट सोचने के लिए
-विभा परमार