Search This Blog

Saturday 28 January 2017

उलझनें

इक आह रहती है
रोज़ दर रोज़
अब टीस बन गई है जो अब
इसकी हरारत से अक्सर
खुद को खुद में ही गुम पाती हूँ

शायद है कोई है ग़म का भँवर
जिसमें जा रही हूं उलझती हुई
कोशिश करती हूँ
उलझनों को सुलझाने की
पर कुछ नई गांठें पड़ जाती हैं
एक तरफ लगाती हूं नए पैबंद
दूसरी तरफ से उखड़ जाती है

Thursday 5 January 2017

चलो एक काम करें ..

बारिशों की तरह
बरसती है आँखें
आओ इनको
कोई नाम दिया जाए
सांसों की शाम
कब ठहर जाए
आओ इनको किसी के नाम किया जाए
किनारें ठहरे हम नदियों के
चलो मिलकर कोई अंजाम दिया जाए
अश्क भी साथी
लफ्ज़ भी साथी
क्यूँ ना इश्क की परछाई को
कैद किया जाए

Tuesday 3 January 2017

सूखे पत्ते और बारिश की बूँदें

1 . 
मैं शंकित नहीं होना चाहती
और ना ही बनना चाहती हूँ 
 उपहास का पात्र 
 तुम्हें बनाना भी नहीं चाहती
नहीं मालुम तुम्हारे लिए क्या  मतलब  है इश्क का
मगर  मेरे लिए
ये आत्मा
समर्पण
विचारों और
भावनाओं का गहरा संगम है
जो पानी की तरह बहता है
जिसमें बातों का टकराव होता है
विश्वास का नहीं

2.  

बिखरी सूखी पत्तियों सी ठहरी मैं 
कहीं तुम वो हरियाले वसंत तो नहीं
कड़कती बिजली सी बिफरी मैं 
कहीं तुम वो बरसते बादल तो नहीं
है अजनबी भी, है अंजान भी हम 
कहीं तुम्हारी प्यार भरी बातें कोई भ्रम जाल तो नहीं
नाउम्मीदी का खाली कमरा है मेरे अंदर
जिसमें सिर्फ़ अश्कों के मोती चमकते है
कहीं तुम वो उम्मीद की रोशनी तो नहीं
कुछ अधूरे लफ्ज़ है कुछ अधूरी बातें
कहीं तुम मेरे लिए वो पूरी बात तो नहीं
गुम हूं अपनी उलझन भरी जिंदगी में 
कहीं तुम वो सुलझन बनकर मौजूद तो नहीं,