Search This Blog

Saturday 28 January 2017

उलझनें

इक आह रहती है
रोज़ दर रोज़
अब टीस बन गई है जो अब
इसकी हरारत से अक्सर
खुद को खुद में ही गुम पाती हूँ

शायद है कोई है ग़म का भँवर
जिसमें जा रही हूं उलझती हुई
कोशिश करती हूँ
उलझनों को सुलझाने की
पर कुछ नई गांठें पड़ जाती हैं
एक तरफ लगाती हूं नए पैबंद
दूसरी तरफ से उखड़ जाती है

No comments:

Post a Comment