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Monday 13 August 2018

कमरा


मैं देखती हूं उस कमरे को जिस पर लगा है बरसों से ताला आज मन में आया कि इस ताले को कुछ देर आराम दिया जाए, मैंने ताले को खोलकर दरवाज़े को धक्का दिया और देखा ,उस कमरे को जिसमें एक बैड है उस पर अबतक चादर बिछी हुई है, और हां कोई सिलवट भी नहीं, एक अलमारी भी है  जिस पर आईना लगा हुआ है, आईना साफ़ नहीं है धुंधला चुका है धूल से, कमरे में पुराने गानों की गुनगुनाहट नहीं होती अब सायं सायं की आवाज़ें गूंजती है, दीमकें खा रही है धीरे धीरे फर्नीचर,
हां एक सोफ़ा भी है जिस पर मैं अक्सर गुस्सा होकर बैठ जाया करती थी और कहती थी गुस्से में कि मैं नहीं सिखला सकती हूं कि प्रेम कैसे होता है?और ना ही बतला सकती हूं कि प्रेम आखिर होता क्या है, प्रेम का उत्सव कैसे मनाया जाता है,  बस लगता था कि  प्रेम क्या, कैसे  और मनाने के बीच की एक डोर है, जिसने बांध रखा है हम लोगों को।
मैं फिर देखती हूं उस कमरे में रखी हर छोटी छोटी चीज़ को जिनका साथ सदियों से तुम्हारे साथ चला आ रहा हो, पुरानी डायरी,पुराने पेन जिसकी इंक लगभग ख़त्म हो चुकी हो, आईना, फर्नीचर, अलमारी में टंगे हैंगर, ये सब, ये सब  तुम्हारे साथ पहले भी थे और अब भी, इनका साथ बिल्कुल वैसा ही रहा जैसे एक हाथ का दूसरे हाथ का साथ, ये बोल नहीं सकते, पर साथ निभा जाते है, और मैं! बस मैं ही रही, मेरी दस्तक से ये  सब कुछ देर के लिए सकपकाए असहज ज़रूर हुए पर फिर सब सहजता में बदल गया।जाने  मैं से हम कब बन गए ये तो हममें से किसी को भी  नहीं मालूम!
तुम्हारा जाना! अचानक से जाना! उफ्फ विचलित होने के साथ आजीवन के लिए मुझे और इन सबको तन्हा छोड़ गया, देखो! अब तुम भी देखो इस कमरे में मौजूद हो पर इन सबकी तरह बोल नहीं पाते, तुम्हारी आहटें जाने कब से नहीं सुनी, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी देह की गंध ये सब स्मृति में बंद है, मेरी हिम्मत नहीं होती इस कमरे में आने की पर ,पर मैं क्या करूँ ये कमरा कमरा नहीं खाईं है प्रेम की जिसमें हम दोनों डूबे रहे,साथ ही ये सब भी ,देखो ना!
अब तुम भी इस कमरे में मौजूद हो बैड के पास रखी मुस्कुराती फोटो में!
शेष फिर!

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