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Sunday 2 December 2018

प्रेम

मैं तुम्हें बेहद करती हूं
या हद में करती हूं
प्रेम
इसका तो मुझे भी नहीं मालुम
और ना ही मुझे जानना ही उचित लगता है

बस लगता ये है कि
कैसे दो हृदय एक हुए जा रहे है
जो रच रहा है तुम्हें मेरे अंदर
इस रचना में मैं होकर भी
मैं नहीं हो पा रही हूं
बस मैं अवतरित हो रही हूं
क्षण क्षण तुममें!

तुम्हारी निगाहों भर से ही
मैं निखर जाती हूं
तुम्हारी आवाज़ भर से ही
मैं प्रफुल्लित हो जाती हूं
तुम्हारे पास आने भर से ही
मैं शीतल हो जाती हूं

मानों मिल रहे हो ऐसे
जैसे मिलते है
ओस और ओस की बूंद जैसे
सफेद चमक
शांति की चमक
फैला रही है प्रकाश प्रेम का
प्रकाश प्रेम का कर रहा है संतुष्ट
हम लोगों को
मुझे हर पहर
और तुम्हें
कुछ ही पहर!

पर हर पहर
और कुछ पहर में
हम रहते है साथ
ईमानदारी की डोर पकड़कर
ये डोर है थोड़ी शरारती
जो अपनी शरारतों से
कर देती है तंग
इस तंग में शामिल है
कुछ व्यस्तताएं
कुछ वक्त
और कुछ नीरसताएं

विभा परमार








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