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Sunday 22 July 2018

बाकी रह जाता है

कितना कुछ बाकी रह जाता है कहने को,
कितना कुछ बाकी रह जाता है सुनने को
क्या तुम्हें ये सब कुछ भ्रम या क्षणभंगुर लगता है?
कितनी आसानी से तुमने अपनी बात कहकर ख़त्म कर  दी वैसे ही बिल्कुल जैसे बिन पानी के फूल मुरझा जाते है,उन फूलों का  मुरझाना  महज़ मुरझाना नहीं होता है उनकी धीरे धीरे खूबसूरती का खत्म होना, उनका तड़पना, उनका इन्तज़ार करना कुछ ऐसा ही हुआ प्रेम के साथ जो बेइंतहा खूबसूरत, बेहिसाब इश्क करना और फिर चंद शब्दों की आड़ लेकर सबकुछ खत्म कर देना!
अजीब  होता है और हैरानगी भरा भी कि प्रेम में पहले दो से एक हो जाना फिर एक होकर अलग होना ,बड़ा कष्टदायक होता है, ऐसा लगता है ये कष्ट पूरे शरीर में बह रहा हो और आत्मा घायल पड़ी हो, जिसके घाव सिर्फ़ सहने वालो को पता होते है! धीरे धीरे वक्त की धारा में हम बहते ज़रूर है, हम वो हर काम करते है जिससे हमें खुशी मिलती हो मगर तसल्ली नहीं, तसल्ली तो कबसे बेचैन पड़ी है दिल के इक कोने में जिसमें ज़मी है धूल हमारे अभिमान, मय, गलतफहमी की और हम इसको  कभी दूर करने की कोशिश भी नहीं करते
क्यूँ आखिर क्यूँ ?
हमें रोना मंज़ूर होता है, हमें अकेले रहना मंज़ूर होता  है, हमें खुद को सही ठहराना मंज़ूर होता है  मगर दो मिनट शांति से बात करना मंज़ूर नहीं होता है
उसी कोने में यादों के कण ठिठुरते रहते है कभी कभी हम नकार देते है महज़ इन्हे बेफिज़ूल की बंदिशे कहकर!
सच में अगर ये सच्चाई है प्रेम की तो इससे अच्छे भ्रम है,इससे अच्छे  ख्वाब है
जो होते ज़रूर क्षणिक है  मगर आहत नहीं करते, जिनके टूटने से दर्द नहीं होता और  मुस्कुराकर इनको साझा करते है
पर उनका क्या
जो होकर भी साथ नहीं होते, बस अपनी बात कहकर अपना एक काम ख़त्म कर देते है सिर्फ़ काम!

विभा परमार

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