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Tuesday, 10 July 2018

ख़ामोशी बसर करती रही

कभी कभी याद आती है
वो बातें, वो शामें
जिसमें
इक ख़ामोशी बसर करती रही
लगा था कि
ख़ामोशी मुसाफिर है चंद दिनों की
पर लगता है अब
इसने अपना बसेरा यहीं बना लिया है
ये जो
ख़ामोशी का बसेरा हैना
याद दिलाता है
अपना वो वक्त
जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़
हम दोनों ही मौजूद रहे!
अब अकेले रहना मुश्किल नहीं पड़ता
क्यूँ कि
ये रातें और ये दिन
पसरे हुए से लगते है
इन पसरे हुए रात और दिन में भी
मैं
तुम्हारे ख्यालों से जी उठती हूँ
जिसमें तुम्हारी उँगलियों की पोर का
मेरी गर्दन पर वो स्पर्श
सिर्फ़ मेरी देह में झनझनाहट नहीं
बल्कि  मेरी आत्मा तक में शोर मचा देता है
अच्छा सुनो
इश्क का ये शोर
तुमको भी सुनाई देता है?
विभा परमार

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