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Tuesday, 10 July 2018

प्रेम बहरूपियापन

प्रेम
बहरूपियापन से कम नहीं
प्रेम के अनेकों रूप
बेचैनी
छटपटाहट
आशा
निराशा
आकर्षण
मौन
खनकती हँसी!
जो बयां कर देती है
सबकुछ
तुम्हारा मेरे अंदर रोज़ बढ़ना
और
मेरे अंदर मेरा ही
कम हो जाना
सोचती हूँ
मैं इस युद्ध में अकेली तो नहीं
ऐसे कितने दिल होंगे
जो बिखरे, टूटे और फिर संभले
मगर इनकी घटनाएँ सदियों पीछा करती है
बहरूपिया बनकर!
ये जो सब घटित हो रहा है
वो ना दुर्भाग्यपूर्ण है
और ना ही सौभाग्यपूर्ण ही है
इसमें ना तो तुम्हारा बस चलता और ना ही मेरा
जानते हो
ये प्रेम जो है वो
महीन और रेशमी  धागा  है
अगर एक बार उलझ जाए
तो इसका सुलझना मुश्किल रहता है
कुछ तुम भी ऐसे ही हो
महीन और रेशमी धागा
मगर तुम निकले तेज़धार के
जो खुद को सुलझाकर
चले गए
अपने स्वामित्व को पाने!
और मैं ठहरी रही चट्टान सी
जो ना अब पिघलती है और ना ही कोई प्रतिक्रिया करती है
बस अंदर ही अंदर चलता है कारवां
प्रेम और प्रार्थनाओं का!
विभा परमार "विधा"

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