मैं खोजते खोजते
वहां वहां भटकती रही
जहां तुम मुझे मिलने का बोलते थे
वो नदी, वो नहर और
और वो किनारा
जहां तुम ही तुम रहते थे
और शायद
मैं भी!
मगर
अब तुमने
खुद को बनाकर
मुझसे ही किनारा कर लिया!
क्या करूँ मैं ऐसा
या क्या कर जाऊं ऐसा
जिससे तुम मिल सको
फिर से वहीं
तुमने मुझे अपनी
लंबी सड़क नहीं
इक गली बना दिया
जिस पर से ना जाने
कितने मुसाफिरों का रोज़ आवागमन रहता है
पर ये गली (मैं)
हमेशा तुममें ही रहती है
करती है इन्तज़ार
हर पहर
कि कभी भूले भटके ही सही
आ जाओगे तुम
एक दिन
विभा परमार "विधा"
धन्यवाद
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