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Friday, 29 June 2018

अपंगता

अपंगता!
हां वाकई
प्रेम में अपंगता सा महसूस होता है
मानों सबकुछ सन्नाटों में तब्दील हो चुका हो
मैं अब  किसी बैसाखी पर सवार हूं
जो कब तक साथ रहेगी
ये ख़बर ना उसको है और ना ही
हमको
धीरे धीर सब नष्ट हो रहा है
धीरे धीरे रिसाव हो रहा है
खुद का
अस्थिरता की नरमी
और
स्थिरता  की गर्मी
दोनों ही  रास नहीं आती

मैं डूबना चाहती हूं खुद में
इतना कि
तेरे ज़िक्र से भी
मैं बेचैन ना हो जाऊं!
तेरे होने से भी मैं आहत ना हो जाऊं

मगर कुछ अपंगताएं
प्रेम में अपंगताएं
मेरे आगे बढ़ने पर रोक लगा देती है
ना ये खुद में डूबने देती है
और ना ही तुझमें
क्षण क्षण चूर चूर होना
क्षण क्षण ठगाई सा लगना
मुझे रात रात को सोने नहीं देती
बस भूल भूल कर
किसी  तिलिस्म का इन्तज़ार रहता है!

विभा परमार "विधा"


Sunday, 27 May 2018

इश्क शहद

तुम बस बर्फ़ से पिघलकर मुझमें 
यूंही बहते रहना
और मैं यूंही
अस्त व्यस्त सी तुमको देखकर
खुद में सुलझती रहूंगीं
इश्क का रंग हम दोनों की  जिंदगी पर चढ़े ऐसा
कि कभी उतरने की आहट तक ना हो
हम लड़े भी ऐसे
मानों
दोनों में इश्क का ही इज़हार हो!
ना छोड़ो तुम मुझे और ना छोड़ू मैं तुम्हें
किसी भी हाल में
हम लोग हर हाल में  एक दूसरे को
इश्क का शहद पिलाते  रहेंगे
तुमको पाकर मैंने अब खुद को पा लिया
क्या ये कम है?
तुम्हें देखना मानों खुद को देखना भर होगा
अब जिंदगी भर
बस तुम यूंही
मेरा साथ निभाते रहना
हम हर वो गली से गुज़रेंगे
जहां इश्क के उत्सव मनाएं जाते होगें
जहां सबके लिए इश्क ही ख़ुदा होता होगा
जहां ना धर्म का बोलवाला
और ना ही दोगली बंदिशें होगी
हम मिलकर हमेशा
बंज़र दिलों पर इश्क का लेप लगाते रहेंगें!

विभा परमार

दो लोग

दो लोग
एक घर!

जो दो लोग हैना
उन्हें विपरीत स्थितियों ने
जल्दी ही बूढ़ा बना दिया
वे कुछ कहते नहीं
बस मूकदर्शक बनकर
अपने भाग्य को खगालते है
मन ही मन अपने
पाप और पुण्यों का हिसाब करते है!

घर
अब मात्र
मकान बनकर रह गया
जिसमें किलकारियां
पायल की छनछन नहीं बजती
बजता है अब
सन्नाटों का रुदन
झींगुरों की सायं सायं!
विभा परमार

Friday, 30 March 2018

ओस

मेरा मन ओस की तरह ठंडा है
बिल्कुल ठंडा जाने कैसे....!
मन की ये ठंडक कब से लेकर कब तक रहेगी
इससे बेख़बर हूं
इस बेख़बर में जाने
पलाश के खिलते फूल
अंदर ही अंदर खिल रहे है
जिनकी खुशबू तुम तक पहुंच रही है
या
ये खुशबू कहीं तुम तो नहीं...?
सुनो!
तुम तो नहीं
पर हां
तुम्हारे इश्क की परछाई
मुझमें अब भी विचरण करती है
बिल्कुल वैसे ही
जैसे  विचरते है
रात के अंधेरे में  "चमगादड़"
विभा परमार

Monday, 26 March 2018

आखिरी मंज़िल

सुनो!
क्या तुम बन सकते हो
मेरी
"आखिरी मंज़िल"
क्यूँ कि
आखिरी मंज़िल को पाने में
कभी कोई
विकल्प साथ नहीं देते!
और मैं तुम्हें
विकल्प की श्रेणी में रखकर
प्रेम को "आकर्षण" का नाम
देकर
खुद को या तुमको
भयभीत नहीं करना चाहती

Thursday, 28 September 2017

किस्सा झील का

"इश्क ने ग़ालिब निकम्मा बना दिया वरना आदमी हम भी काम के थे"सच में ग़ालिब का ये शेर सिर्फ़ शेर नहीं ये तो गहराई है इश्क की जिसमें जितना डूबो उतना कम, अरे अब मैं दूसरों की क्या बात करूँ मैं भी...मैं भी इश्क की कच्ची धूप से ना बच पाया, सच में ये कच्ची धूप,चिलचिलाती बिल्कुल नहीं, ये तो बहुत नाजुक लगती है, उफ्फ कैसी बातें कर रहा हूँ मैं कोई लेखक या कवि तो हूँ नहीं जो शब्दों की नदी में डूब जाऊँ या..या कल्पनाओं की हवाओं के साथ उड़ जाऊँ.... मैं तो मैं हूँ, इक प्रोफेशनल इंजीनियर जो कभी इस मशीन के नट बोल्ट को टाईट करता है या कभी उस मशीन के नट बोल्ट कोढीला करता है, actually मैं खुद भी इक मशीन ही तो हूं तभी तो मुझे ये प्यार व्यार, इश्क, मोहब्बत समझ नहीं आता ये सब कुछ फर्जी लगता है,मैं तो बचपन से ही साइंटिफिक चीज़े देखता आया हूं, मेरी माँ जो वेबकूफ डेली सोप्स को देखकर रो देती थी by god उनके साथ टीवी देखना मतलब खुद का शोषण करवाना था, खैर मुझे क्या मैं तो उनको ही देखकर हंसने लगता था तो embarras होकर बोलती जब मैं टीवी देखूं तो तू निकल जाया कर घर से ! बताओ अब डेली सोप्स के चलते अपने बेटे को घर से निकाल देती है ,कमाल है मुझे इनकी इस वेबकूफी पर हंसी आती थी।इक बार मेरा माइनर एक्सीडेंट हो गया टकरा गया बाईक से ज्यादा डरने की बात नहीं बस पैर से खून बहने लगा फिर क्या मां तो मां होती है उसने तो घर को सिर पर उठा लिया बन गई अपने डेली सोप्स सीरियल की माँ और हल्दी दूध वगैरह वगैरह देती कहती फिरती मुझे पता है तुझे दर्द है पर तू बताएगा नहीं भई मैं क्यूं नहीं बताऊंगा मैं ज़रूर बताऊंगा मगर उसके लिए दर्द भी तो होना चाहिए खैर ये तो रही माँ की बात, इश्क की बात तोपीछे ही रह गई हां तो इश्क यार!इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करो और प्रैक्टिकल मशीनों के साथ तो इश्क तो हुआ मगर मशीनों से ही बाकी मैं जिन लोगों के साथ था वो लोग हिंदी फिल्मों के मजनुओं की तरह रोते रहते और फिर रिज़ल्टस में भी रोते लास्ट ईयर तक आते आते एवरेज़ हो जाते पढ़ाई को लेकर, लेकिन मनमुताबिक जाब ना मिलने पर ग़लती कॉलेज वालों पर थोपते, मुझे फिर हंसी आती सोचकर कि साले जो तुमने तीन साल पढ़ाई की परीक्षा कम मजनुपने की परीक्षा ज्यादा दी तो फिर इससे ज्यादा तुम एक्सपेक्ट करो ही मत पर इनको कौन समझाए।खैर इनको जाने दो मैं बात कर रहा हूँ इश्क की। माफी चाहूँगा कि बार बार भटक रहा हूँ और आप सबको भटका रहा हूँ पर कुछ ऐसा हाल है मेरा अबमैं 27 साल का आदमी बन चुका हूं जो मशीनों के साथ खुश है बहुत खुश किसी से कोई खासा लगाव भी नहीं है परजहां मेरा जाब है वो शहरी इलाके से दूर हरियाली से घिरा छोटा सा एरिया है, मैं जहां जाब करता हूँ सोचता हूं वहां के लोग प्रकृति प्रेमी ज्यादा है तभी हरियाली, गार्डन सबकुछ बनवा रखा हैआफिस और घर दोनों ही पास है लेकिन इन दोनों के बीच झील है, मुझे हरियाली, गार्डन से अच्छी झील लगती है जो हमेशा शांत रहती है, मैं सिर्फ़ इसको देखने के लिए ही वाक करके आफिस जाता हूँ और फिर देखकर घर जाता हूँ।झील को देखकर मैं ऐसे मुस्कुराता हूं कि मानों वो मेरी प्रेमिका हो ऐसे विचार गोते लगाने लगे वो भी मुझ जैसा मशीन फिर कोई तो बात होगी उस झील में, उसकी शांति में।मैं रोज़ की तरह ऑफिस से वापस आ रहा था कि मेरे कदम झील के पास आकर ऐसे रुक गए मानों झील ने कहां हो कि सुनो आज तुम यहीं रुकोगे समझे! और मैंने तुरंत सरेंडर कर दिया हो वो हुआ यूँ किआज एक लड़की जो मेरी झील में पत्थर पर पत्थर फेंके जा रही थी, मुझे समझ नहीं आ रहा कि इसको आखिर रोकूं कैसे ये मशीन हो तो इसका बोल्ट ठीक कर दूं पर ये तो जीती जागती मशीन मेरा मतलब है लड़की है, देखकर लग रहा था कि आज झील कोपत्थरों से ढक देगी, बेखबर सबसे बस पत्थर पर पत्थर फेंके जा रही थी। पहले तो मैंने सोचा कि रहने दो क्या करना फिर लगा कि मेरी झील जिसे निहारने के लिए मैं रोज़ सुबह शाम यहां खड़ा रह जाता हूँ आज तो मेरी शांत झील पर ये लड़की झुर्रियाँ बरसा रही है। वैसे तो मैं बहुत फ्रैंक हूँ बट लड़की से ये बोलना थोड़ा ज्यादा हो जाएगा पता नहीं कहां का फ्रस्ट्रेशन निकाल रही थी। सोचा ये सब छोड़ो और अपनी झील को बचाओ बस फिर क्या कूद गया युद्ध में वीर योद्धा की तरह एक बार बोलासुनिए,सुनिएसुनिएनहींसुना मैंने भी एक पत्थर उठायाऔर तेजी से झील में फेंक दिया उसने जो देखा तो ऐसे देखा कि मैं उसे देखता ही रह गया,उससे डर नहीं लगा बल्कि ये लगा फेस से इतनी मासूम दिखने वाली लड़की इसशांत झील पर कहर क्यूँ बरपा रही है, दो मिनट घूरा उसने और मेरे बोलने से पहले ही वो चुपचाप वहां से निकल गई, फिर क्या मैंने उसको जाते देखा फिर झील को और कान पकड़ के माफी मांगी कि उसको रोकने के लिए तुमपे पत्थर फेंका और देखो मैंने उसके कहर से तुमको बचा भी लिया, फिर मैं भी चल दिया।मगर अब सिर्फ़ मैं झील, और मशीनों के बारे में ही नहींबल्कि उस लड़की के चेहरे के बारे में भी सोचता कि इतने साल गुज़र गए मैं ये सोच रहाविस्तृत संभल कर ये जो सोच रहा है इसमें सन्नाटा कम और शोर ज्यादा है, मैंने विराम दिया और सो गया।रोज़ की तरह ऑफिस से वापस लौटा देखा कि वो लड़की फिर पत्थर फेंक रही, मैंने फिर एक पत्थर उठाया और फेंक दिया और उसने ऐसे घूरा कि ये मेरे सिर के बाल नोंच देगी मगर ऐसा हुआ नहीं और चली गई और मैंने फिर झील सेमाफी माँगी और चल दिया मगर वो लड़की मशीन से ज्यादा मेरे दिमाग में घूम रही थी!उफ्फ ये चीज़े भी ना बड़ी अजीब होती है, उसको देखकर ऐसा लगता है कि ये ज़रूर अपने बायफ्रेंड से परेशान होगी और यहां मेरी झील को परेशान करने आ गई, अगर कल आई और ऐसा मैंने देखा तो बता दूंगा अच्छे से मुझे बिल्कुल पसंद नहीं कि कोई मेरी शांत झील को इस तरह परेशान करे, अपनी परेशानी को अपने तरीके से साल्व करे नाकि यूँ करे,ये सोचते सोचते मैं कब सो गया मुझे नहीं पता लेकिन कल के लिए मैं बहुत ज्यादा एक्साइटेड था।सुबह जल्दी जल्दी उठा मानो मुझे उस लड़की से मिलने की बेताबी हो, खैर ऑफिस गया और फिर शाम होते होते अपनी झील के पास, आज भी वो लड़की पत्थर फेंक रही थी, मैंने सोचा कि ये घूरेगी और चली जाएगी इससे अच्छा हैमैं बोल दूं मैंने पत्थर उठाया और झील में फेंका उसके घूरने से पहले ही बोल दिया कि देखिए मैडम आप जो रोज़ रोज़ झील में पत्थर फेंकती है वो मुझसे देखा नहीं जाता क्यूँ कि मैं अपनी शांत झील को बहुत प्रेमकरता हूँ और आपका उस पर पत्थर फेंकना मुझे गुस्सा दिलाता है ये झील है ,बेजुब़ा है इसका मतलब ये तो नहीं कि इस पर पत्थर फेंका जाए पता नहीं मैंने क्या से क्या नहीं बोल दिया चंद मिनटों में ,मुझे बाद में अहसास हुआ कि मैं मशीन होने के साथ साथ एक अच्छा प्रकृति प्रेमी भी हूँ जो अपनी प्रेमिका के लिए लड़ रहा था, वो लड़की चुप थी और देखे जा रही थी मेरे बोलते बोलते में कब वो घूरने से देखने पर आ गई मुझे नहीं पता, मगर उसका कुछ भी ना बोलना मुझे अखर गया और रोज़ की तरह वो आज सुनकर चुपचाप चली गई।अरे यार ये क्या कर दिया मैंने इतना सुनाया पर वो कुछ नहीं बोली शक्ल से मासूम है बोलने में भी मासूम ही होगी चलो कोई नहीं, कल आयेगी भी या नहीं? पर मैंनेअपनी झील को तो सेफ कर लिया था लेकिन अब मैं अनसेफ फील कर रहा हूँ क्या करूँ...क्या करूँ....विस्तृत तुझे ये सब शोभा नहीं देता तू विस्तृत है विस्तृत, प्रोफेशनल इंजीनियर समझा अब तू अपने मजनू दोस्तों की तरह कुछ भी मत सोच। मैं बस चुप था बस चुप और इन्तज़ार शाम का जिसमें मेरी शांत झील और वो लड़की! जो भी हो मैं सोच रहा हूँ मतलब कुछ तो हलचल चल रही है और ये हलचल हंगामा बनकर नाचे मुझे यहीं स्टापकरना पड़ेगा।मैं सोच कर सो गया ऑफिस गया शाम ढँल चुकी थी मैं चलते चलते अपनी शांत झील को सारी बोल रहा था कि आज मैं तुमसे मिल नहीं पाऊंगा मुझे माफ करना, और मेरी नज़र झील के पास खड़ी ल़ड़की पर गई और नज़रो के साथ मेरे कदम भी कुछ देर ठहरे और झील के पासमुड़ गये,वो लड़की मेरी झील की तरह शांत थी आज तो पत्थर भी नहीं फेंक रही थी,मैं खुश भी था कि मेरी बातका असर हुआ परिणाम सामने मगर बेचैन इसलिए कि ये कुछ बोल नहीं रही थी, मैंने सोचा मेरी बातों का इस पर गहरा असर हुआ है चलो मैं ही बोलता हूँ ,हाय मैं विस्तृत और मैं पास के ऑफिस में काम करता हूँ कल के लिए सारी कि मैंने ज्यादा बोल दिया था मगर आपने तो कुछ भी नहीं बोला तो मुझे लगा कि आपको शायद बुरा लगा होगा इसलिए आई एम सारी रिअली सारी!पर वो कुछ नहीं बोल रही थी,चेहरे से ऐसा तो नहीं लग रहा था कि वो बोलने से परहेज कर रही होगी मगर जाने क्यूँ नहीं बोलरही, हो सकता है सोच रही हो कि ये सब बात करने के बहाने हो, लड़का हूँ लड़कियाँ सबसे पहले अपने दिमाग के घोड़े यहीं दौड़ायेंगीं फिर उन्हें बताओ तो बमुश्किल ही माने, खैर ये क्यूँ नहीं बोल रही,मुझे थोड़ा अजीब लगा और देखा कि एक लड़का बोलता हुआ आता है दीदी, झील दीदी आप रोज़ यहाँ आकर खड़ी हो जाती हो चलिए घर चलिए, मैंने सुना झील ये झील इस लड़की का नामभी झील है पता नहीं मेरा दिल जो मशीन था उसके नट बोल्ट खुल चुके थे बस मैं मुस्कुराने में बिज़ी था कि वो लड़की सारी! झील अपने घर को निकल रही थी मैंने जल्दी से देखा और पत्थर उठाया और झील में फेंका झील मुड़ी और पास आई अपने भाई को इशारा किया ,उसने मुझे देखा और फेंकने से मना किया मैं चाहता था कि झील मुझे मना करें मगर ऐसा हुआ नहीं, आखिर उसको मेरा बोलना इतना बुरा लगा कि वो खुद मना नहीं कर सकती या मेरी ही भाषा में मुझे डांट दे, उसके पास मौका अच्छा था पर वो चुप थी सिर्फ़ चुप! उसकी चुप्पी मेरी बेचैनी को और बड़ा रही थी, वो अपने भाई के साथ जा चुकी थी मेरी बेचैनी को बड़ाकर,और मैं बस यही सोच रहा कि वो बोली क्यूँ नहीं!विस्तृत आज विस्तृत नहीं बल्कि मजनुओं की श्रेणी में आ चुका था,याद आया मुझे अपनी कॉलेज की जिंदगी जिसमें मैंने अपने दोस्तों को मजनू बनते देखा रात रात को जागते देखा, सिर्फ़ और सिर्फ़ लैलाओं की बात ही कहते देखा, मैं उनकी इस भावना से पहले जुड़ा ज़रूर था मगर आभास अब हो रहा है वो भी झील के कारण, मैं शांत झील की बात नहीं कर रहा हूं मैं तो उस झील नाम की लड़की की बात कर रहा हूं, जिसको देखकर मेरे कदम ठहर जाते है और अपनेआप उसके करीब चले जाते है, क्या मैं जितना सोचता हूँ वो भी सोचती होगी या सिर्फ़ पत्थर ही फेंकती रहती है, मुझे फर्क नहीं पड़ता मैं मिलूंगा और जब तक वो बोलेगी नहीं तब तक बोलता रहूंगा आखिर वजह इतनी भी बड़ी नहीं कि वो बात ना कर सके।
रोज़ की तरह आफिस से झील की तरफ देखा कि आज झील और उसका भाई खड़े फुटबॉल खेल रहे थे पहली बार उसको यूँ मुस्कुराते देखा मेरे दिल में घंटिया बजने लगी वाह मैडम पत्थर फेंकने के अलावा ये भी करती है, दोनों एक दूसरे में इतना बिज़ी कि उन्हें होश ही नहीं कि कोई तीसरा भी यहां है, भाई की नज़र मेरी तरफ गई और उसने हल्की सी मुस्कान पास की तो मैंने भी बिना दिमाग लगाए उसको मुस्कुराकर जवाब भी दे दिया, और इशारे में पूछा कि मैं भी फुटबॉल खेल सकता हूँ, भाई की हां ने पाकर तो मैं अंदर ही अंदर गद-गद हो गया और झील से बात करने का मौका भी मिल गया मगर वो बस मुस्कुराती हम दोनों चि़यरअप करते पर वो  ताली बजाती बस, थोड़ी देर में फुटबॉल दूर जाकर गिरी मैं देखता हूँ कि झील कुछ बोली नहीं बस मुझे देखा और अपने भाई को इशारा करने लगा, भाई मेरे पास आया और बोला कि आप यहां दीदी के लिए आते है ना रोज़ मैं देखने लगा और चुप हो गया वो कंडीशन बड़ी ही अजीब थी जिसमें झूठ बोलना भी बेकार लगा इसलिए मैंने चुप रहना बेहतर समझा, मैंने झील को देखा, वो पास आई और भाई को इशारा किया मुझे उसके इशारों से एक बात समझ आ चुकी थी कि झील सिर्फ़ इशारों से ही अपनी भावनाएँ और बातें बता सकती थी लेकिन वो बोल नहीं सकती थी, मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा और मैंने झील से कहा कि झील मुझे तुम मेरी शांत झील की तरह लगती  है जो चिलचिलाती बिल्कुल नहीं बल्कि अपनी गर्माहट से मुझे भर देती हो।
आज दो झील एक साथ खड़ी है एक मेरी प्रेमिका और एक मेरी होने वाली जीवनसंगिनी, मैंने बिना वक्त जाया किए कह दिया कि क्या तुम इस मशीन के साथ अपना जीवन बिताना पसंद करोगी?
झील की आँखों में चमक थी जिससे समझ आ रहा था कि वो भी मेरा साथ पसंद कर रही है।
सच में गालिब की वो लाइन अब बहुत सही लगती है कि इश्क ने मुझे भी निकम्मा बना दिया झील के प्यार में!
विभा परमार

Monday, 14 August 2017

कभी मौन कभी मुर्दा

निकल आई हूँ मैं
तुम्हारी प्रेम की बस्ती से
जहां रहती थी मौजूद
समुद्र जैसी ख़ामोशी
लेकिन इसी ख़ामोशी में
दिखता था दोनों का समर्पण
ये समर्पण कोई समझौता नहीं था
बल्कि थी प्रेम की भावना
प्रेम की वो भावना
जो बिना बोले
कह जाती थी हज़ारों लफ्ज़
पता है
ये हज़ार लफ्ज़ों का कारवां मानों
सिर्फ़ कारवां निकला
जिसने बदला रूप "मुसाफिर" का
उन्स जो रहा ढाल बनकर दोनों के दरमियां
वो करता रहा विनती मुसाफिर से
पर मुसाफिर जो रहा थोड़ा शातिर
जिसने अपने हटीले मिज़ाज से
हिज्र की मदद से उन्स को खत्म कर दिया
इस ख़ात्मे से कहीं ना कहीं
दोनों की आत्मायें आहत हुई है
जो रोज़ उत्पन्न करता है अपना रोष
कभी मौन रहकर तो कभी मुर्दा बनकर
विभा परमार

Wednesday, 19 July 2017

इन्तज़ार

बस हूँ ज़िंदा मैं वहां
जहां तुम छोड़ कर  गए
ना कुछ कहकर
और ना सुनकर
बड़ी थरथराई सी रहती है
अब ये सुबह
और सहमी सहमी सी रहती है ये रातें भी
हां
सुबह तो कट जाती है मन को इधर उधर  बहलाकर, फुसलाकर या फिर तुम्हारी यादों की फसलों को याद करके
मगर ये रातें बड़ी खारी लगती है
या खारी हो गई है
जिसकों मैं जितना पीती हूँ
पर प्यास है कि बुझती नहीं
वो और बढ़ जाती है
बुझी बुझी और थकी थकी सी आँखों के आँसू नहीं बहते
बस बहता है सिर्फ़
"इन्तज़ार"
विभा परमार

Tuesday, 11 July 2017

बोलती भावनाएँ

आज वो मिली थी सड़कों पर मुझे
जो रिस रही थी धीरे धीरे
खुद से नाराज़ सी लगी
कभी चुप, कभी  ख़ामोश सी हो जाती
कुछ डरी डरी और कुछ सहमी सहमी सी
देखकर मुझे और दूर जाने लगी
और कहने लगी
मैं भी तुम इंसानों के अंदर पाई जाती थी
और तुमने मुझे भावना का नाम दिया था
जिसमें रहती थी संवेदनायें पर जैसे जैसे
 तुम्हारे अंदर नये ज़माने ने पनाह ली
और तुममे मौजूद रहने लगी मशीनी मंशाये
मैं तुमसे दूर होती गई
क्यूँ कि मशीनी मंशाये और भावना
आखिर साथ में कैसे रह सकती थी भला
तुम दूसरों को कष्ट पहुँचा कर
स्वार्थ सिद्ध करके खुद को खुशी दे सकते हो
मगर मैं ऐसा नहीं कर पाती
पड़ने लगी मुझ पर तुम्हारी दी झुर्रियाँ
मानो लगता हो बूढ़ी हो चुकी हूँ तुम लोगों के लिए
तुम लिप्त खुद में
और मैं निकल आई तुम्हारे अंदर से
इन सड़कों पर कि शायद
मिल जाए मुझे मेरे साथी
दया, प्रेम, अपनेपन के हमराज़
विभा परमार

ज़मी परतें

मैं पूर्ण थी तब तक
जब तक तुम मौजूद थे
तुम्हारा आना मानों
हवा का वो झोंका था
जिसमें मैं भी उड़ चली
उन झोंको में हम दोनों ने मिलकर
गुज़ारे जिंदगी के वो हंसीं पल
जिनके अहसास अब तक जिंद़ा है दिल के दरीचों में कहीं
फिर झोंको से दूर जाने की घड़ी भी आई
और दूर जाने से
दरीचों की परतें भी धीरे धीरे जम गई
दरीचें इतने सख्त कि
ना सवाल पूछे गए और
ना ही जवाब दिए गए
कुछ मौजूद है हम दोनों में कहीं
जिसको दे सकते है नाम अपनेपन का
मगर वो अपनापन भी लिपटा हुआ है खामोशी में यकीनन खामोशी से लिपटी अपनेपन की धारा से ज़मी परते ज़रूर पिघलेगीं।
विभा परमार