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Monday, 14 August 2017

कभी मौन कभी मुर्दा

निकल आई हूँ मैं
तुम्हारी प्रेम की बस्ती से
जहां रहती थी मौजूद
समुद्र जैसी ख़ामोशी
लेकिन इसी ख़ामोशी में
दिखता था दोनों का समर्पण
ये समर्पण कोई समझौता नहीं था
बल्कि थी प्रेम की भावना
प्रेम की वो भावना
जो बिना बोले
कह जाती थी हज़ारों लफ्ज़
पता है
ये हज़ार लफ्ज़ों का कारवां मानों
सिर्फ़ कारवां निकला
जिसने बदला रूप "मुसाफिर" का
उन्स जो रहा ढाल बनकर दोनों के दरमियां
वो करता रहा विनती मुसाफिर से
पर मुसाफिर जो रहा थोड़ा शातिर
जिसने अपने हटीले मिज़ाज से
हिज्र की मदद से उन्स को खत्म कर दिया
इस ख़ात्मे से कहीं ना कहीं
दोनों की आत्मायें आहत हुई है
जो रोज़ उत्पन्न करता है अपना रोष
कभी मौन रहकर तो कभी मुर्दा बनकर
विभा परमार

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