बस हूँ ज़िंदा मैं वहां
जहां तुम छोड़ कर गए
ना कुछ कहकर
और ना सुनकर
बड़ी थरथराई सी रहती है
अब ये सुबह
और सहमी सहमी सी रहती है ये रातें भी
हां
सुबह तो कट जाती है मन को इधर उधर बहलाकर, फुसलाकर या फिर तुम्हारी यादों की फसलों को याद करके
मगर ये रातें बड़ी खारी लगती है
या खारी हो गई है
जिसकों मैं जितना पीती हूँ
पर प्यास है कि बुझती नहीं
वो और बढ़ जाती है
बुझी बुझी और थकी थकी सी आँखों के आँसू नहीं बहते
बस बहता है सिर्फ़
"इन्तज़ार"
विभा परमार
जहां तुम छोड़ कर गए
ना कुछ कहकर
और ना सुनकर
बड़ी थरथराई सी रहती है
अब ये सुबह
और सहमी सहमी सी रहती है ये रातें भी
हां
सुबह तो कट जाती है मन को इधर उधर बहलाकर, फुसलाकर या फिर तुम्हारी यादों की फसलों को याद करके
मगर ये रातें बड़ी खारी लगती है
या खारी हो गई है
जिसकों मैं जितना पीती हूँ
पर प्यास है कि बुझती नहीं
वो और बढ़ जाती है
बुझी बुझी और थकी थकी सी आँखों के आँसू नहीं बहते
बस बहता है सिर्फ़
"इन्तज़ार"
विभा परमार
बहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteदिल की गहराई में उतरती हुई
धन्यवाद
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