निशब्द हूँ
टीस मची है दिल में
रिस रही है भावनायें
खामोशी के समंदर में
उठ रही जज़्बात की लहरें
मोहब्बत के पंख फड़फड़ा रहे
आखिर क्यूँ दुश्मन है आपस में सारा जहां
मनभेद का होता है रोज़ संगम
गलतफैमियों से कर रखी है यारी यहां
जाने क्यूँ पनपती है ईर्ष्या
जाने क्यूँ रहता है मनमुटाव यहां
धरा-अम्बर सी है दूरी
जो मिल भी जाये कभी
मगर रहती है अधूरी
देखा है अक्सर
इंसानी फूलों को रोते हुए
विश्वास की सुगंध को
जाने क्यूँ रहता है मनमुटाव यहां
धरा-अम्बर सी है दूरी
जो मिल भी जाये कभी
मगर रहती है अधूरी
देखा है अक्सर
इंसानी फूलों को रोते हुए
विश्वास की सुगंध को
धीरे-धीरे खोते हुये
महसूस हुआ और मलाल भी रहा
इंसानियत मानों दब सी गई हो
इंसानों के अहसानों अहम से,
गरीबी है बहुत यहां
मगर लोगों के दिल में
साज़िशे चलती है
अक्सर दिमाग में
कहना क्या, करना क्या
भूला हुआ है
हर इंसा यहां
मारकर अपने
अंतर्मन की आवाज़ को
रोज़ करता है, कत्ल़ इंसा यहां
सांपों से ज्यादा इंसानों में बसता
है जहरीला ज़हर यहां
रोज़ करता है, कत्ल़ इंसा यहां
सांपों से ज्यादा इंसानों में बसता
है जहरीला ज़हर यहां
देखती हूँ हर
इंसा को
लड़ते
इल्ज़ाम लगाते
मय को जीतते
इंसानियत को हारते
सोचकर समेटकर शब्दों को
काग़ज पर उछालती हूँ
विद्रोह करके
विरोध करके
आखिरकार
निशब्द हो जाती हूँ
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