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Monday 3 October 2016

स्त्री की विडम्बना


स्त्री
अपने विचारों से 
आज़ाद है
मगर,
पुरुषों से आज़ाद नहीं
हर रिश्तें में रहती ज़िन्दा
मगर,
बंदिशों से आज़ाद नहीं
समर्पित कर खुद को 
उपकार करे वो
मगर
लांछन से आज़ाद नहीं
दूसरों का अस्तित्व बनाती
मगर
खुद का कोई अस्तित्व नहीं
जिंदगी है उसकी शायद
मगर
उसपर खुद का कोई अधिकार नहीं
सह जाती है सारी पीड़ा,
मगर
अपनी पीड़ा कहने का अधिकार नहीं
सारे सवालों का देती है वो जवाब
मगर
खुद का कोई सवाल नहीं
प्रश्नचिह्न है यहां पुरूषप्रधान
मगर
आबरू का कोई रखवाला नहीं
कितनी मिसाले है यहां स्त्रियों के प्रति
मगर
हर कोई विश्वास पात्र नहीं....

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