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Tuesday, 18 October 2016

निशब्द हूँ

निशब्द हूँ
टीस मची है दिल में
रिस रही है भावनायें
खामोशी के समंदर में 
उठ रही जज़्बात की लहरें 
मोहब्बत के पंख फड़फड़ा रहे
आखिर क्यूँ दुश्मन है आपस में सारा जहां
मनभेद का होता है रोज़ संगम 
गलतफैमियों से कर रखी है यारी यहां
जाने क्यूँ पनपती है ईर्ष्या
जाने क्यूँ रहता है मनमुटाव यहां
धरा-अम्बर सी है दूरी
जो मिल भी जाये कभी
मगर रहती है अधूरी
देखा है अक्सर
इंसानी फूलों को रोते हुए
विश्वास की सुगंध को 
धीरे-धीरे खोते हुये
महसूस हुआ और मलाल भी रहा
इंसानियत मानों दब सी गई हो
इंसानों के अहसानों अहम से,
गरीबी है बहुत यहां
मगर लोगों के दिल में
साज़िशे चलती है 
अक्सर दिमाग में
कहना क्या, करना क्या 
भूला हुआ है 
हर इंसा यहां
मारकर अपने 
अंतर्मन की आवाज़ को
रोज़ करता है, कत्ल़ इंसा यहां
सांपों से ज्यादा इंसानों में बसता
है जहरीला ज़हर यहां
देखती हूँ हर 
इंसा को
लड़ते 
इल्ज़ाम लगाते
मय को जीतते 
इंसानियत को हारते
सोचकर समेटकर शब्दों को
काग़ज पर उछालती हूँ 
विद्रोह करके 
विरोध करके
आखिरकार
निशब्द हो जाती हूँ