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Thursday, 10 January 2019

रीत!

मैंने आज देखा ,और कई बार देखा!
हां तुम सही कह रहे थे, रीत देखो तुम्हारी वो बात जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आख़िरकार वो सच हो ही गई!
जो उत्सुकता,जो प्रसन्नता,जो मुस्कुराहट मेरे अंदर तुम्हारे लिए झलकती है,वो शायद,शायद तुम्हारे अंदर नहीं!
कुल मिलाकर मैं खुली आंखों से सूरज को देखने की चाह रख रही हूं जबकि खुली आंखों से सूरज को देखने पर आंखें मेरी ही चौंधियांगी,
सोचती हूं रीत!
कि सब जानकर भी मैं उस रथ पर सवार हो रही हूं जिसका सारथी मैं ख़ुद हूं ,जो चलता चला जा रहा है,तुम्हें सोचकर!
ऐसा नहीं कि मुझे घबराहट नहीं होती,मन बिछोह से नहीं कराहता,  कल-कल पानी की तरह प्रश्न नहीं बहते, मैं फ़ैसला लेने की जुगत करती हूं कि उसी वक्त तुम्हारा चेहरा मेरे सामने कौंधने लगता है, जिसको देखकर मैं बादल की तरह गरज जाती हूं,मेरे आंतरिक मन में हिम्मत की बिजलियां चमकने लगती है
कि जो हो रहा,जो चल रहा वो सब सही ही है,
इतना क्या सोचना?
लेकिन जब तुम, तुम मेरे प्रति रुचि नहीं दिखा पाते तब मैं  व्यथित होकर उसी रथ पर सवार होकर ऊबड़ खाबड़ रस्तों पर तेजी से रथ को दौड़ाने लगती हूं, तब मुझे इतना भी होश नहीं रहता कि रथ के पहिए  निकल भी सकते है,चोट लग सकती है,रस्तों से भटक भी सकती हूं,
पर तुम ख़ुद ही देखो ना रीत! मैं आख़िर करूँ क्या
मैं तुम्हारे क़रीब नहीं आना चाहती, क्यूंकि तुम्हें नहीं चाहिए!
ना मैं, कुछ भी नहीं चाहिए  तो फ़िर मैं तुम्हें तंग करूं ही क्यूं! 
तुम तो मेरे होने और ना होने से ना घटोगे और ना ही बढ़ोगे,
लेकिन मैं ज़रूर तुम्हारे ना होने से घट जाऊंगी, और तुम बख़ूबी जानते हो रीत
पसंद,आकर्षण, प्रेम क्या है नहीं समझ आता लेकिन जब तुम मेरे प्रति प्रयास नहीं करते तो मुझे  मैं बासी रोटी के बासी ही लगती हूं, जिसको सुबह चाय के साथ तब खाया जाता है जब कोई स्पेशल ना बना हो!

तुम्हारी ज़िंदगी में मेरा प्रवेश  देर से हुआ! इसमें भी मुझे अपनी ही ग़लती दिखती है रीत
तुम तो रीत हो सुख देने वाले लेकिन मैं  मैं रिव़ाज जो प्रथा बनकर एक दिन घुट जाएगी!

विभा परमार

Friday, 4 January 2019

वो नहीं

हम अकेले ज़्यादा खुश है
ना किसी का इन्तज़ार
ना किसी से इज़हार
ना किसी से उम्मीद
ना किसी से निराश
लिखने में तो हम ये सब लिख ही जाते है पर क्या इसे हम अपनी ज़िंदगी में उतार पाते है?

हम कहने के लिए बहुत कुछ कह जाते है
हम सिर्फ़ कही गई बातों को ही मान जाते है
लेकिन क्या इस स्थिति को हम वाकई महसूस कर पाते है?

नहीं बिल्कुल भी नहीं
जाने कैसे कैसे मोह में बंधने लगते है इनसे छुटकारा भी चाहते है और शायद नहीं भी चाहते
आज स्थितियां बिल्कुल भी भारी नहीं
लेकिन कुछ ऐसा है जो घट रहा है, जो रिस रहा है
पृथ्वी की तरह बस घूम रही हूं  तुम्हारे चारों ओर
मगर कोई ठहराव ही नहीं
मैंने तुम्हें चुना नहीं ,
कोई स्वयंवर रचा नहीं प्रेम के लिए

भाव आया
इसमें मेरी आख़िर गलती क्या
मोह आया
इसमें मेरी आख़िर गलती क्या

अगर मेरा मन तुमसे लगा
तुम में लगा
इसमें मेरी ग़लती क्या

क्या मेरा जन्म सिर्फ़ गलती करने के लिए हुआ
क्यूं नहीं तुम वो देख पाते हो
क्यूं नहीं हो सकता तुम्हें प्रेम
क्या तुम हो पत्थर
या फ़िर
सिर्फ़ मुझसे ही नहीं हो सकता तुम्हें
प्रेम

मेरी ग़लती की फ़ेहरिस्त में
बड़ी ग़लती ये हुई है कि
जो महसूस होता है
उसे मन में ना रखकर तुम्हें बताया!
बस यही!

मुझसे नहीं होता
मन को बहकाना
और तुमसे नहीं होता
मुझे स्वीकारना!

हम इस उम्र में आकर
मिले ही क्यूं?
तुम आए ही क्यूं
नहीं जान पाई मैं
ये कि
प्रेम को कैसे, किससे, कब,
किया जाए!
मैं आख़िर कोई अवसरवादी तो हूं नहीं

वक्त दिया हमने एक दूसरे को
लेकिन ये हो क्या गया!
मैंने कोई साज़िश नहीं की

तुम्हारे प्रति अगर प्रेम आया
तो क्या ग़लती  है

तुम आज़ाद हो
हर  उस क्षण से
जहां तुम्हें लगा हो कि ये प्रेमवश
रखती है मेरा ख़्याल
तुम आज़ाद हो
हर उस बात से जहां
तुम्हें लगा हो ज़रा भी ये कि
है इसे कोई उम्मीद मुझसे

तुम इनके लिए कभी ख़ुद को दोषी मत समझना
क्यूंकि ये कियाधरा सब मेरा है

मैं तुम्हें नहीं जानती  भलीभांति
लेकिन
ख़ुद को तो बख़ूबी जानती थी ना!

क्यूं!!!!!

ये अन्तद्वंद मुझमे है
ये सवाल मुझमे है
पर जवाब
जवाब
इतने स्पष्टवादी
जिनको सोचकर
मुझमे घबराहट, निराशा, नाउम्मीदी पैदा हो जाती है

बस शापित होकर रह गई हूं मैं
प्रेम में
जिसमें लगता है कि  वो है
मगर वो कोई नहीं
बस वास्तविकता यही है!

विभा परमार














Tuesday, 25 December 2018

वी नो एवरीथिंग

कभी कभी लगता है कि हमें अपने सपनों के हसीं अतीत में जीना चाहिए जहां के किस्सों को हम वास्तविकता में सुना सके जिससे राहत नसीब हो।
पर  इस वास्तविकता भरे जीवन में राहत हो ये ज़रूरी नहीं,ख़ासकर उनसे तो बिल्कुल भी नहीं जिन्हें बख़ूबी मालुम हो कि हां इसका मोह है हमसे,इसलिए भी शायद मेरा जी ऊब जाता है कि हमे चाहते हुए और ना चाहते हुए भी सिमटते रिश्तों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है,आख़िर क्यूं हमें ज़रूरत पड़ती है मशक्कत की वो भी उनके लिए जिनसे सिर्फ़ मोह ही है!
क्या मोह इतना ख़राब है?
कि जिनसे मोह है भी थोड़ा बहुत वो भी  अपनी ग़ैर स्थितियों के चलते अपनी गतिविधियों से बताने लगते है कि  उन्हें ये मोह रास नहीं आता,वाकई ज़माना प्रायोगिक हो रहा है,  और लोग प्रायोगिक हो रहे तो बुरा क्या! ऐसा तो बुरा कुछ भी नहीं लेकिन अगर जन्म से प्रायोगिक हो तो बिल्कुल भी बुरा नहीं पर अचानक से हो तो बुरा नहीं बहुत बुरा होता है।
और अगर ऐसा हो ही रहा तो फ़िर ये प्रायोगिकता सिर्फ़ एक के लिए नहीं सबके लिए होनी चाहिए, पर ऐसा भी तो नहीं होता ना!
बहुत साधारण सी बात बोल रहे हैं कि बहुत ज्यादा ख़राब लगता है इस ख़राब के लिए मेरे पास दोष जैसे शब्द नहीं होते,
लेकिन हां मन में बहुत सारे सवाल फटकने लगते है, जिनके जवाब भी एक वक्त बाद गूंगे लगते है, कैसे?
जैसे क्या बोल रही हो, मैं तो ऐसा करता नहीं, भला मैं क्यूं करूंगा ऐसा, मैं ये सोचकर नहीं बोला था, अरे यार क्या बोलूं, और अंत में तुम सही हो!
मेरा मकसद तुम्हारी ग़लतियां बताना नहीं, वो तुम्हें पता ही है यू नो एव्रीथिंग!
पर ऐसे व्यवहार से रिश्ते गढ़ते नहीं सिर्फ़ हाय हैलो तक ही सिमट कर रह जाते है, और कुछ नहीं
हम भी तो चाहते है कि तुम जैसे सबके सामने अच्छे से पेश आते हो, अपनत्व से बात करते हो वैसे हमसे भी  तो कर सकते हो, लेकिन तुम्हें पता हैना कि मोह है 

तो बस!!!!

विभा परमार

Sunday, 2 December 2018

प्रेम

मैं तुम्हें बेहद करती हूं
या हद में करती हूं
प्रेम
इसका तो मुझे भी नहीं मालुम
और ना ही मुझे जानना ही उचित लगता है

बस लगता ये है कि
कैसे दो हृदय एक हुए जा रहे है
जो रच रहा है तुम्हें मेरे अंदर
इस रचना में मैं होकर भी
मैं नहीं हो पा रही हूं
बस मैं अवतरित हो रही हूं
क्षण क्षण तुममें!

तुम्हारी निगाहों भर से ही
मैं निखर जाती हूं
तुम्हारी आवाज़ भर से ही
मैं प्रफुल्लित हो जाती हूं
तुम्हारे पास आने भर से ही
मैं शीतल हो जाती हूं

मानों मिल रहे हो ऐसे
जैसे मिलते है
ओस और ओस की बूंद जैसे
सफेद चमक
शांति की चमक
फैला रही है प्रकाश प्रेम का
प्रकाश प्रेम का कर रहा है संतुष्ट
हम लोगों को
मुझे हर पहर
और तुम्हें
कुछ ही पहर!

पर हर पहर
और कुछ पहर में
हम रहते है साथ
ईमानदारी की डोर पकड़कर
ये डोर है थोड़ी शरारती
जो अपनी शरारतों से
कर देती है तंग
इस तंग में शामिल है
कुछ व्यस्तताएं
कुछ वक्त
और कुछ नीरसताएं

विभा परमार








Sunday, 25 November 2018

मनावट

कभी कभी मनावट इतनी करीब लगने लगती है कि हम उसको शब्दों की डोर से परिभाषित नहीं कर सकते।
हां.... मन की मनावट जो हर किसी में नहीं विचरती, और ना ही हर किसी को विचरने का मौका देती है, बड़ी अजीब है ये मनावट इतनी कि मैं इसकी तुलना उस छोटे बच्चे से कर सकती हूं जिसे जो चीज़ पसंद आ जाए तो फिर ज़िद पकड़ कर बैठ जाता है और कहने लगता है चाहिए तो चाहिए बस, मैं कुछ नहीं जानता।
पर यहां ना ही हम बच्चे ही रहे और ना ही ऐसी कोई परिस्थिति ही आई कि चलो बच्चा बनकर एक बार ज़िद्द ही कर लें।
बात तो सिर्फ़ छोटी सी है कि मनावट हर किसी को लेकर नहीं बनता इस मनावट का बीज ज़मी में जम चुका और अब ,अब अंकुरित हो रहा है, इश्शशश ये क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये ज़मी ज़मी ना होती काश बंजर होती।
पर कहां ही ऐसा होता है, इंसान की ज़िंदगी बड़ी अजीब है यहां किसके साथ क्या घटित हो जाए किसी को कोई ख़बर नहीं, बस कुछ ऐसा ही हो रहा है यहां,मन तो लगा है बहुत लगा है मन पर जाने किसकी तलाश ,
हम वो सब भी करते है जिसका रत्ती भर भी शिकवा नहीं होता, शिकवा भी भला कैसा और किसके लिए आखिर होता तो मनावट की वजह से ही।
सोचती हूं हम इंसानों को चाहिए होता है इक इत्मिनान जो हमेशा हमारे अंदर शांति पैदा करे,  जो हमें सकारात्मक करे, हमारे पास से  गुज़रने वाले विचारों पर ताला लगाए ,पर ताला..... लग ही जाए ये भी ज़रूरी नहीं, हम ऐसे रस्तों पर चले जा रहे जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ रेगिस्तान है जो  हमारे तलवों को जलाए जा रहा है, रेगिस्तान का अंत है भी पर हम अंत की परवाह नहीं करते हमें परवाह है तलवों की.....
अनिश्चित ज़िंदगी में अनिश्चित लोगों की दस्तक को हम इतना महत्व कैसे दे देते है,  दस्तक सिर्फ़ दस्तक तक क्यूं नहीं सिमट पाती है ,ये कैसा सम्मोहन होता है जो एक पर अटक कर रह जाता है
इसमें दोष किसका मनावट का,मोह का, या हम लोगों का
हम चाहते भी है और नहीं भी चाहते , हम खुश भी रहना चाहते है और नहीं भी ,हम अकेले भी रहना चाहते है और नहीं भी
कितना कुछ प्रकट होता है और कितना कुछ अंदर रह जाता है ,जो अंदर रह जाता है वह पागल कुत्ते की तरह हमें काटने को दौड़ता है ,और हम भागने लगते है ,भागते रहते है जब तक कि हम दूर नहीं हो जाते पागल कुत्ते से, भागकर हम घर नहीं ढूंढते हम ढूंढते है क्षणिक ठिकाना वो भी ऐसा जहां अकेले रहा जा सके, घर ढूंढनेंगे तो प्रेम उत्पन्न होगा और प्रेम उत्पन्न होगा तो ज़िम्मेदारियों का बंधन होगा इसलिए हम भागते रहते है, पर  कभी कभी लगता है कि देना चाहिए खुद को आराम ,होना चाहिए घर, जहां इत्मिनान हो खुद के होने का पर!!!!

Saturday, 3 November 2018

ज्वार धारा

मैं प्रेम में
पहले भी ज्वार थी
और अब भी ज्वार ही रही

और तुम,
तुम प्रेम में धारा!

धारा बन तुम अपनी गति में बहते रहते हो
धारा यानि कि तुम
किसी और से नहीं
बस अपनी दशा से प्रभावित हो

लेकिन ज्वार
इसका स्वभाव ही
बेपरवाह सा है
जिसमें  प्रतीक्षा ज्यादा है
जिसमें स्नेह ज्यादा है
जिसमें उबाल ज्यादा है

धारा में प्रेम है भी और नहीं भी
धारा में मैं हूं भी और नहीं भी
धारा में तुम हो भी और नहीं भी
मगर ये धारा  तुम हो ये ज्ञात है तुम्हें
और मैं ज्वार हूं  ये मुझे ज्ञात है

विभा परमार

Friday, 19 October 2018

प्रेम में नदी होना

मैं दिल में पवित्र भाव लिए बैठी रहती हूं
जिसे कह सकते है हम लोग
"प्रेम"
ये भाव  मुझे बार- बार
तुममें विचरने को कहते है
इस विचरने की यात्रा में
  हम मिलते है
  घंटों साथ रहते है
  और और
  एक दूसरे निहारते है
  इस निहारने की प्रक्रिया में
  हम कब एक दूसरे के आलिंगन में आ जाते है
  ये तो हम भी नहीं जान पाते
  बस बोसा के प्रतिकार में बोसा
  घबराहट ऐसे होती है कि
  अपनी सांसों की आवाज़ भी बोलती नज़र आती है
  शब्द भी शरमा  जाते है
  मानों मुझसे बिना पूछे ही ले लिया हो प्रतिकार
  मैं देखती हूं तुम्हें और लगता है कि
  देखती ही रहूं।

  पर तुम ठहरे
  प्रेमी स्वभाव के
  कुछ वक्त लेकर
  मुस्कुराकर
  करने लगते हो
   प्रेम
  तुम्हारा स्पर्श
  तुम्हारे बोलने भर  से ही
  मैं नदी बन जाती हूं
  प्रेम में नदी
  समुद्र तुममें
  अन्ततः मिल जाती हूं
  तब नदी नदी नहीं
  वो समुद्र हो जाती है
  यानि मैं, मैं नहीं
  हम हो जाते है।

विभा परमार
 
 
 
 
 
 
 
 

Saturday, 8 September 2018

आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती

हम एक दूसरे के हिस्से उतने ही आ पाते है जितना हम सिर्फ़ चाहते है, या फिर महज़ अपना अपना ध्यान बटाना चाहते है, कहने के लिए हम एक समय वक्त से भी ज्यादा वक्त एक दूसरे को दे देते है, कहने के लिए हमारा एक दुख उसका और उसका एक सुख हमारे दुख को ख़त्म करता नज़र आता है, हम इतना मशगूल हो जाते है आपस में कि हमारी एक एक गतिविधियां तक की ख़बर उसको हो जाती है, घर, परिवार और वहां घटने वाली घटनाएं भी अपनी सी प्रतीत होने लगती है, हम बात करते है ख़ूब बात करते है पहले हम पंसदीदा मुद्दों पर बोलते है, फिर धीरे धीरे व्यक्तिगत पर बोलते है और फिर व्यक्ति पर बोलना शुरू कर देते है, हम उससे जुड़ी हर चीज़ पर छानबीन करने लगते है, हम पहले से ज्यादा  ही ईमानदार हो जाते है मगर किसके लिए और कब तक?
हमारे बीच जानने की प्रक्रिया तक ही वक्त लगता है जानने के बाद हम बेपरवाह हो जाते है इतने कि हमें कुछ भी समझ नहीं आता,हमें लगने लगता है कि यही मानवीय व्यवहार है, यही होता आया है और आगे भी यही होगा पर वाकई  क्या ये सब सही है? हमें आखिर क्यूं नहीं हो पाती इन सबकी आदत, बदलाव की,व्यवहार की,
हम अपने अपने रिश्तों में ना जाने कौन सा दर्शन खोजने लगते है, हम क्यूं हमेशा बोलने तक ही बंध जाते है, और एक वक्त के बाद हम आपस में ही झिझक जाते है, बात करने से पहले ही अपने आप से प्रश्न करने लगते है बात करनी चाहिए या नहीं, इन्तज़ार करना चाहिए या नहीं, हाल लेना चाहिए या नहीं,कभी कभी इतने अद्भुत बन जाते है कि महसूस होने लगता है नहीं हम वो नहीं या ये वो नहीं, एक दूसरे को सही ठहराकर अपने आप से  घृणा  करने लगते है जबकि इन सबके बीच हमारी मनोदशा कुछ और ही होती है लेकिन कुछ कह पाना और कुछ सुन पाना बेवजह लगता है, हमें लगने लगता है कि हम शून्य और ठहर चुके है पर उस बीच ये भूल चुके होते है कि ये शून्यता और ठहराव हमारे अंदर आखिर शांति क्यूं नहीं पैदा करती है!

विभा परमार

आदमखोर

कभी-कभी छोड़ देना चाहती हूं
उन लोगों
उन जगहों
उन बातों को
जिनके होने भर से असहनीय भार सा महसूस होता है
कभी-कभी उन सपनों को भूल जाना चाहती हूं.
जो सिर्फ़ भ्रम पैदा करते है
जिनका असर सुबह से दोपहर तक बरकरार रहता है

लगता है ,अब मैं इनके भार से दब चुकी हूं
झुक चुकी हूं
बिल्कुल वैसे
जैसे
एक उम्र के बाद बूढ़े की रीढ़ की हड्डी
झुक जाया करती है

इन वजहों से अब शब्द घुटने लगे है
और एक घुटन के बाद
आदमखोर का रूप रखकर
पहले से भरे पन्नों पर कहर बरपाते है
जिसका सन्नाटा कोरे पड़े पन्नों पर दिखाई पड़ता है।

विभा परमार

Sunday, 2 September 2018

लूटेरा फ़िल्म

ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर आधारित फ़िल्म "लूटेरा" विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में बनी है।
क्या कहें दो दिन से इस फ़िल्म का खुमार चढ़ा हुआ है।
50वें दशक के समय को जीवंत करती लूटेरा फ़िल्म ने वाकई मेरे दिल में एक जगह बना ली है।
बाबा ,बेटी और वो लूटेरा!
फ़िल्म देखकर मन बहुत भारी हो गया, गला  भर आया देखकर कि हम प्रेम में इतना ऊपर उठ जाते है कि हमारे सामने हमारा प्रेम अगर खड़ा हो जाए दोषी रहते हुए, उसे हमारा सज़ा देना कूबूल होगा पर किसी और से ये उम्मीद नहीं  की जा सकती  कि वो उसे कष्ट पहुंचाए,
कुछ ऐसा ही रहा पाखी और वरूण का प्रेम
बहुत ही आराम लेता है  इनका प्रेम मानों इक लंबी गहरी नींद में चला गया हो ,ऐसा महसूस होता है कि,
दोनों एक स्टेज पर आकर अलग तो हो गए, मगर पता नहीं क्यूं एक दूसरे में हमेशा के लिए खो गए हो।
कैसा महसूस हुआ होगा जब पाखी को वरूण से प्रेम हुआ था  मानों एक ही बार में अपनी गतिविधियों से उस पर अपना अधिकार जमा रही हो ,बाइक और कार की टक्कर, सिर्फ़ टक्कर नहीं थी, ये तो शुरुआत थी उन दोनों के बीच की टक्कर की,
पाखी के घर में वरूण की दस्तक से ही पाखी कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ कह रही थी, रोज़ टकटकी लगाकर उसको देखना, फिर अचानक बाबा से बोलना पेंटिंग सीखना है, पेंटिंग वो भी वरूण से सीखना जिसको पेंटिंग का पी तक बनाना नहीं आता,
चित्रकारी की क्लास का पहला दिन पाखी का नर्वस होते हुए जाना कभी कभी देखकर  लगता कि थोड़ी सी चंचल है बस बाहर से ही गंभीर नज़र आती है, उधर वरूण का चित्रकारी को लेकर  डरते डरते पाखी से पूछना (बहुत फनी पत्तियां बनाई थी वरूण तुमने) जब हम प्रेम में होते है तो जाने क्यूं हम अपने प्रेमी को मना नहीं कर पाते आखिर वो क्या चीज़ें रह रह कर लौटती है कि देखने भर से ही,समय बिताने भर से ही, बात करने भर से सब कुछ नदी की तरह बहने लगता है,  और एक दिन वरूण चला जाता है, क्यूंकि वो तो एक लूटेरा था, पर हां वो लूटेरा सिर्फ़ लूटेरा नहीं प्रेमी भी था।
जब गया तो सब कुछ ले गया अपने साथ पाखी की मुस्कुराहट,आंखों की चमक, उसका श्रृंगार,  बाबा का जीवंत साथ (वरूण का ये रूप बाबा झेल नहीं पाए धोखाधड़ी उनकी मौत हो जाती है)
छोड़ गया बस चारों ओर बर्फ ही बर्फ, अब लगता है इन नज़रों को दिन में भी अंधेरा नज़र आता है, ये रोज़ होने वाली  सुबह भी शाम नज़र आती है। आत्मा 
भारी  और भरी है इतना कि अब आसूं बहते नहीं,
बाबा की मौत के बाद बस उनकी तोता वाली कहानी याद रहती है, नफ़रत ऐसी होती है कि जितना लिखती हूं उससे ज्यादा लिखकर फाड़कर ज़मी पर फेंक देती हूं,
अधिकतर अपनी  कुर्सी पर बैठी रहती हूं सब महसूस होता है ,सारे भाव  आते है पर मैं अडिग अपने एक भाव पर टिकी  हूं, उठकर दरीचों से ढांकती हूं उस पेड़ को जिस पर बर्फ़ जम रही है और पत्तें झर रहे है, अपनी ज़िदगी भी शायद ऐसी ही है , इन पत्तों की तरह रोज़ भाव झरते है सिवाय एक के ,बर्फीला आवरण ठहर गया तबसे।
होश में होने के बाद भी होश नहीं रहता, मानों अब घड़ी घड़ी मौत का इन्तज़ार!
तुम क्यूं लौट आए वरूण ,क्यूं ? ये देखने के लिए की मैं तुम्हारे बिना कैसे रहती हूं,  कैसे जीती हूं ,बोलो और अब तुम इतना प्रेम दिखाकर साबित क्या करना चाहते हो, कोई मतलब नहीं तुमसे पर पर जब तुमने कहां कि पुलिस को बुला सकती हो मुझे पकड़वा सकती हो तो फिर वो कौन सी चीज़ बाकी रह गई थी मुझमें कि मैं कई दफ़ा कोशिशों के बाद भी  पुलिस को नहीं बता पाई कि तुम यहीं मेरे पास ठहरे हुए हो!!!!! 
आखिर क्यूं
क्या  प्रेम  इतना हावी रहता है!!!!