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Thursday 10 January 2019

रीत!

मैंने आज देखा ,और कई बार देखा!
हां तुम सही कह रहे थे, रीत देखो तुम्हारी वो बात जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आख़िरकार वो सच हो ही गई!
जो उत्सुकता,जो प्रसन्नता,जो मुस्कुराहट मेरे अंदर तुम्हारे लिए झलकती है,वो शायद,शायद तुम्हारे अंदर नहीं!
कुल मिलाकर मैं खुली आंखों से सूरज को देखने की चाह रख रही हूं जबकि खुली आंखों से सूरज को देखने पर आंखें मेरी ही चौंधियांगी,
सोचती हूं रीत!
कि सब जानकर भी मैं उस रथ पर सवार हो रही हूं जिसका सारथी मैं ख़ुद हूं ,जो चलता चला जा रहा है,तुम्हें सोचकर!
ऐसा नहीं कि मुझे घबराहट नहीं होती,मन बिछोह से नहीं कराहता,  कल-कल पानी की तरह प्रश्न नहीं बहते, मैं फ़ैसला लेने की जुगत करती हूं कि उसी वक्त तुम्हारा चेहरा मेरे सामने कौंधने लगता है, जिसको देखकर मैं बादल की तरह गरज जाती हूं,मेरे आंतरिक मन में हिम्मत की बिजलियां चमकने लगती है
कि जो हो रहा,जो चल रहा वो सब सही ही है,
इतना क्या सोचना?
लेकिन जब तुम, तुम मेरे प्रति रुचि नहीं दिखा पाते तब मैं  व्यथित होकर उसी रथ पर सवार होकर ऊबड़ खाबड़ रस्तों पर तेजी से रथ को दौड़ाने लगती हूं, तब मुझे इतना भी होश नहीं रहता कि रथ के पहिए  निकल भी सकते है,चोट लग सकती है,रस्तों से भटक भी सकती हूं,
पर तुम ख़ुद ही देखो ना रीत! मैं आख़िर करूँ क्या
मैं तुम्हारे क़रीब नहीं आना चाहती, क्यूंकि तुम्हें नहीं चाहिए!
ना मैं, कुछ भी नहीं चाहिए  तो फ़िर मैं तुम्हें तंग करूं ही क्यूं! 
तुम तो मेरे होने और ना होने से ना घटोगे और ना ही बढ़ोगे,
लेकिन मैं ज़रूर तुम्हारे ना होने से घट जाऊंगी, और तुम बख़ूबी जानते हो रीत
पसंद,आकर्षण, प्रेम क्या है नहीं समझ आता लेकिन जब तुम मेरे प्रति प्रयास नहीं करते तो मुझे  मैं बासी रोटी के बासी ही लगती हूं, जिसको सुबह चाय के साथ तब खाया जाता है जब कोई स्पेशल ना बना हो!

तुम्हारी ज़िंदगी में मेरा प्रवेश  देर से हुआ! इसमें भी मुझे अपनी ही ग़लती दिखती है रीत
तुम तो रीत हो सुख देने वाले लेकिन मैं  मैं रिव़ाज जो प्रथा बनकर एक दिन घुट जाएगी!

विभा परमार

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