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Sunday 18 October 2015

मेरी खामोशी...

बन्द कमरे में बैठा था, कुछ समझ नहीं आ रहा, बस रोशनदान से हल्की रोशनी आ रही थी, जोकि आँखों को बहुत चुभ रही थी। बार-बार ना चाहते हुए भी बचपन से लेकर अब तक घटित घटनाएं दिलो दिमाग पर छाई हुई हैं।  मैं कोशिश करता हूँ मेरे जेहन से सारी यादें मिट जायें, पर नहीं होता ऐसा। 
 उनकी धुँधली सी यादें अब भी बरकरार हैं। आजकल किसी से ना कोई शिकवा रहती है, न ही शिकायत, बस खुद से ही नाराज़गी रहती है। आखिर क्यूँ खुद को सज़ा देता हूँ, खुद से ही सवालों के जवाब पूछता हूँ और बदले में सिर्फ़ खामोशी मिलती है | यह नकारात्मक बातें नहीं हैं, जैसा महसूस हो रहा है वही शब्दों में ढालने की कोशिश कर रहा हूँ |  
मानों ये जिंदगी कितनी लम्बी है, जो कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही | बस ! मैं थक चुका हूँ, अब सोना चाहता हूँ एक लम्बी गहरी नींद में |
मेरी जिंदगी है तो साधारण सी, पर स्थितियाँ ऐसी हो जाती जो कि आसाधारण सी सिद्ध होती है | मैं अपनी ज़िंदगी में खुश रहना चाहता हूँ | औरों की तरह खूब मस्ती करना चाहता हूँ, पर शायद ये सब मेरे लिये नहीं | दूसरों को दिखाने के लिये मैं भी झूठी हँसी हँसता हूँ, ताकि कोई यह न बोल सके कि, ''अरे यार ये तो हमेशा रोता ही रहता है''| 
 पर इस सुन्दर दुनिया में ऐसे लोग भी है जो हँसी से नहीं पर आँखों से हर तरह से टूटने का हाल जान लेते है |   बहुत मानने लगते है, अपना बना भी लेते है फिर अचानक से वो ऐसे प्रतीत होते है मानों उनका हमसें कोई रिश्ता ही ना रहा हो | अजनबी से बन जाते है, और मैं हर बार की तरह एक फूल की तरह प्यार से कुचला जाता हूँ |  बस फिर मेरे पास मेरी सबसे अच्छी दोस्त बचती है खामोशी

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