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Thursday, 15 October 2015

मन से गुफ्तगू


वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहता है, वैसे ही ये मन भी है जो अपनी रफ्तार से चल रहा है। न तो वक्त रूकता है किसी के लिये और ना ही ये मन है। 
मन तो ऐसा है जो कि सुनता ही नहीं, एक बात तो साफ है कि ये मन हद वाला चंचल है।  कभी ये कभी वो कहता है।  खुद से ही उत्तर भी खोज  लेता है, और फिर से ये वो शुरू कर देता है। 

यार आखिर तुम इतने चंचल क्यूँ हो!  इतनी जल्दी तुम सपनों की गहराई के गोते क्यूँ लगा लेते हो, आखिर मैं तो तुम्हारा ही अंश हूँ तो मेरी भी सुना करो।  तुम कहते हो पिट्जा खाना है, हम खा लेते है, तुम कहते हो कि गोल गप्पे खाने है, हम खा लेते है, तुम कहते हो कि चलो फ्रेंड्स से मिलते है, हम मिल लेते है, तुम्हारी हर बात मानते है, ताकि तुम संतुष्ट रहो पर तुम हो कि कभी संतुष्ट नहीं रहते। 

आखिर क्यूँ तुम इतने प्यासे रहते हो कि तुम्हारी प्यास पानी पिलाने से बुझती नहीं, क्यूँ सताते रहते हो जैसे तुम राजा और हम दासी है जब चाहे ये आदेश वो आदेश, अरे अन्दर से हुक्मबाजी आसान है, ज़रा बाहर निकलकर आके एक इंसान की जिंदगी जीकर देखो, तब शायद तुम्हें महसूस हो कुछ पीड़ा। पर नहीं, भला तुम्हें इससे क्या जब तुम्हारे काम चल ही रहा  फिर तुम्हें इंसान के अच्छे बुरे कामों से क्या वास्ता।

तुम्हें पता है तुम्हारी और वक्त की तुलना करते है, कि मन की गति तो वक्त की गति से भी तेज है, हां बिल्कुल सही है और इसमें कोई अतिशोयक्ति भी नहीं है। 

हां तुम्हें सुकून मिल रहा होगा कि तुम वक्त से गति में आगे हो पर तुम सिर्फ गति में ही आगे हो, तभी तो चंचल के लिये तुम्हारा और बलवान के लिये वक्त का नाम लेते है....

तुम अपनी गति को तेज करके दिमाग लगाकर सोचो कि आखिर लाईन ये क्यूँ बोली और अगर उत्तर मिल जाये समझ लो तुम अब अपनी चंचलता पर थोड़ी लगाम जरूर लगा सकते हो

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