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Saturday, 17 October 2015

बारिश और धरा


बारिश की हल्की हल्की बूंदे हिल्लोरे मार रही है, मानो कब से यह इन्तजार में थी कि कब मुझे बरसने का मौका मिलेगा और कब मैं अपनी प्यारी सहेली धरा से मिल सकूंगी।

आज मैं तुमसे मिली तो मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा क्योंकि तुमसे मिलने के लिये कितना इन्तजार करना पड़ता है। कितने जतन करने पड़ते है, ये धूप हमेशा मेरा रास्ता रोककर खड़ी रहती है। मैं शान्त रहकर सब्र कर लेती हूँ कि आज नहीं तो कल मेरा वक्त भी आयेगा फिर ये धूप नहीं रोक पायेगी।

 इसमें मेरा साथ मेरे दोस्त बादल देता है पर ये भी नटखट है कभी ये गरज कर दगा दे जाता है।  धरा मुझे मालुम है तुम बहुत दुखी हो।  

ये इंसान तुम पर बहुत अत्याचार करता है तुम पर कूड़ा कचरा, गन्दगी तुम पर डालता रहता है और तुम उफ तक नहीं करती बस अपना दर्द अपने साथी वृक्षों से साझा करती और मुझ तक ये खबर हवा पहुँचा ही देती है। 
   धरा मैं कभी कभी इतना बरसना चाहती हूँ कि तुम्हारी बंजर छाती नमी से भर जाये और तुम जब तक रहो इसी नमी को याद करके अपनी बारिश को याद करके सारे ग़मों को बहा दो । 




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