Search This Blog

Sunday 18 October 2015

दो माँ में भेद ये कैसा...

आज न तो कहानी है मेरे पास और ना ही कविता, बस हैं तो सिर्फ लफ्ज़| जिनमें कहीं दर्द हैं,तो कहीं सवाल, जो गूँजते रहते है मेरे अन्दर | जब उनका जवाब नहीं मिलता, तो ये भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं कुछ दिन बाद | 
मेरी किसी से फ़रियाद नहीं है, तो शिकायतें भी नहीं, क्यूंकि पता है कि यहां पर लोग जिन्दा लाशें है जो सिर्फ खामोश रहना जानते है सिर्फ खामोश |

 त्योहारों का महीना चल रहा, घर से मोहल्ले तक, सड़कों और दुकानों पर बड़ी चमक छाई हुई है | क्यों, अरे क्योंकि माँ जो आई हुई है..... अम्बे माँ... ! हां मां ही तो होता है आखिरी शब्द | दुर्गा मां, अम्बे मां, काली मां .... ऐसे ही सैकड़ों नामों की पूजा करते हैं जिनके आखिर में माँ होता है | 

इस सांसारिक जीवन में भी एक मां होती है, जिसके कारण ही हम सब इस धरती पर आ पाते हैं  पर एक कल्पना और एक हकीकत की मां में कैसा अंतर है | दोनों स्त्री हैं, पर एक को अम्बे मां कह कर फूल, माला नारियल और चुनरी चढाते हैं, दूसरी को धरती पर बीजारोपण से पहले हो ख़त्म कर देना चाहते हैं | आ भी गई धरती पर तो आंसू बहाते हैं | 

चलो मान लिया जाय एक बार कि अब ऐसा कम हो रहा धीरे-धीरे, शायद आगे जाकर यह खत्म हो जाये, पर इसका क्या, जहां लोगों के लिए मंदिर में मूर्ति में माँ रहती है, सड़क पर चलने वाली स्त्री उनके लिये सिर्फ मज़े का विषय | मैं यह नहीं कहती कि हर पुरुष ऐसा ही है, पर हां अधिकतर ऐसा  ही करते है |
 बड़ा अजीब लगता है जब दो अजनबी लड़के ऐसे घूरते है जैसे उन लोगों स्कैन ही कर लिया हो और फिर वहीं शाम को मन्दिर में अम्बे मां की पूजा करते नज़र आते है

एक तरफ जहां लड़कियों पर अश्लील कमेंट करना उनके कपड़ो से लेकर उनके शरीर पर छींटाकशी द़ागना और दूसरी तरफ अम्बे मां के लिये भक्तिमय गाने गाना.... कुछ समझ नहीं आता कि क्या इंसान वाकई कन्फ्यूज है या फिर अपने पुरुषत्व के ज्यादा हावी होने पर मजबूर...




No comments:

Post a Comment