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Tuesday 11 July 2017

बोलती भावनाएँ

आज वो मिली थी सड़कों पर मुझे
जो रिस रही थी धीरे धीरे
खुद से नाराज़ सी लगी
कभी चुप, कभी  ख़ामोश सी हो जाती
कुछ डरी डरी और कुछ सहमी सहमी सी
देखकर मुझे और दूर जाने लगी
और कहने लगी
मैं भी तुम इंसानों के अंदर पाई जाती थी
और तुमने मुझे भावना का नाम दिया था
जिसमें रहती थी संवेदनायें पर जैसे जैसे
 तुम्हारे अंदर नये ज़माने ने पनाह ली
और तुममे मौजूद रहने लगी मशीनी मंशाये
मैं तुमसे दूर होती गई
क्यूँ कि मशीनी मंशाये और भावना
आखिर साथ में कैसे रह सकती थी भला
तुम दूसरों को कष्ट पहुँचा कर
स्वार्थ सिद्ध करके खुद को खुशी दे सकते हो
मगर मैं ऐसा नहीं कर पाती
पड़ने लगी मुझ पर तुम्हारी दी झुर्रियाँ
मानो लगता हो बूढ़ी हो चुकी हूँ तुम लोगों के लिए
तुम लिप्त खुद में
और मैं निकल आई तुम्हारे अंदर से
इन सड़कों पर कि शायद
मिल जाए मुझे मेरे साथी
दया, प्रेम, अपनेपन के हमराज़
विभा परमार

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