

खैर मैं और मेरी खामोशी चुपचाप से थे, नये शहर और नये शहर के लोगों को अवलोकित कर रहे थे, बस नीरज भईया ही थे जिनके के लिये मैं अंजान नहीं थी, और हो भी कैसे सकती हूँ गई भी तो उनके कारण ही। उन्होंने बताया था विंध्य मैकल लोकरंग महोत्सव के बारे में पर महसूस तो देखने के बाद हुआ। जो एक ऐसा उत्सव है जिसे लोग अकेले नहीं बल्कि सबके साथ मनाते है, जिसमें हज़ारों लोग इकठ्टा होकर अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को सबके सामने रिप्रेजेंट करते है, दूर दूर से आकर अपने हुनर को एक नया नाम देते है।

इनके रहन सहन में २३वीं सदी जैसा कोई बदलाव नहीं बहुत ही सिम्पल कपड़े, और फोन भी ऐसे जिनसे सिर्फ़ बात ही हो सके, आदमी जो २ पैसे कमाकर शराब पीकर खुद को मनोरंजित करते है वहीं औरतें अब भी शरम का गहना पहनकर चलती है।

जब हम सब लोग इनके पास जाते थे तो ये लोग ऐसे देखते मानों इनके सामने दूसरी दुनिया के लोग आ गये हो, बड़ी अचम्भित नज़रें लगती, ताज्जुब होता कि हम क्या इनकी ही दुनिया का हिस्सा है!
पुरानी परंपराओं को अपनी किस्मत मानने वाले ये जनजातियां वाकई अजूबे से कम नहीं है,
15 सितंबर से18 सितम्बर तक का मेरा ये सफ़र ऐसा रहा मानों किसी ने हमकों कुछ दिन जन्नत में ठहरने की पनाह दे दी हो। इतना एनर्जेटिक, पाजेटिव, हार्डवर्क से भरा रहा, जहां पर हर नया चेहरा मानो अपने में एक किस्सा हो कहानी हो, जो हर दिन कुछ ना कुछ नया कहता हो।

यहां से गई अकेली मगर जब उमरिया स्टेशन लौटी तो बहुत सारी हँसी ठिठोली यादों के साथ, तब खामोशी कोसों दूर थी शायद बहुत सारी बातें ,अनुभव बार बार मुस्कुराने पर मजबूर कर रहा हो।
Well articulated.Tu to writer ban gayi.
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