वह जगह मौजूद है क्या कहीं
जहां ठहराव हो कुछ क्षण के लिए
मुश्किलों पर विराम हो
महसूस होता है अब!
कि धक्का खाती फिरती हूँ खामोशी के साये में कहीं
रोज़ धोखे के अक्षरों की पैठ मजबूत होती है
पल पल यहां
ना जाने क्यूँ कभी कभी ये
मासूमियत और भोलेपन को देखकर ऊब सी लगती है
इन सबके प्रति बड़ी नीरसता सी महसूस होती
है कोई बोझ
जो आत्मा को निरंतर नकारात्मकता की खाई में धकेलने की कोशिश करता है
लगता है अब
ये दोगली बातें
बनावटी बंदिशें
तर्क कुतर्क की महामारी
नष्ट हो जाए
बस अपनी कल्पनाओं का इक जहां वास्तविकता में ऐसा हो
जिसमें हो सिर्फ़ निःस्वार्थ प्रेम
Very beautiful poem vibha
ReplyDeleteThank you
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