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Friday, 11 November 2016

दो नई कवितायेँ : दस्तक और दिल ए दिमाग

दस्तक 

अजीब है ये इन्तज़ार भी

मालुम है तुम कभी वापस नहीं लौटोगे

तुम मौसम तो नहीं

जो हर बार अपने वायदों को

निभाने लौट आता है

तुम मेरे लिये सख्त शख्स भी नहीं

ना ही मैं वक़र तुम्हारे लिये!

फिर भी मेरी शिथिल आँखें

इन्तज़ार करती है

हम दोनों की

रंजिशों की उन सड़कों पर

शायद तुम रंजिश करते करते थक जाओ फिर तुम इश्क के बाग में दस्तक देने आयोगे

मोहब्बत के तमाम दस्तावेजों के साथ

मेरे अकेलेपन की सांय सांय को महसूस करने...


दिल ए दिमाग

दिये सा दिल

जिसकी लौ धीरे धीरे

धधकती रहती है

इंतज़ार में...

और दिमाग

आग सा जलता है

इंतकाम में

इक नादान दिल है

जो ज़ाहिद की गलतियों को

माफ कर देता है

हर बार

और इक दिमाग

जो शायद साज़िशे करता है

बर्बाद करने के लिए

जीत के जश्न

खुद की खुशी के लिये

दिल की खुशबू को ख़त्म कर देता है

कै़द कर दिल की भावनाओं को

दिलचस्पी से मु़आना करता है

मगर दिल बड़ा ही दिलचस्प शख्स है

जो लफ्ज़ो से खामोश

उम्मीद की उम्र को बढ़ाता

विश्वास के साथ

शायद दिल और दिमाग की

जंग में दोनों अलग नहीं

एक हो जाये।।

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