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Sunday 10 July 2016

आज भी उसी की हरारत

साँझ साँझ नहीं लगती अब
सुबह सुबह नहीं लगती अब, 

दिन गुज़रता मानों 
सदियां गुज़ार रही हूँ, 
तू तू नहीं अब मैं मैं नहीं हूँ अब,
पाना और खोना किस्मत की बात होती है, 

ऐसी भी किस्मत है मेरी ए ज़ाहिद,
एक एक लफ्ज़ जिससे सीखा,
जिसके लिये सीखा उससे मिले अरसा गुज़र गया,
वो मिला भी सिर्फ़ मेरे अधूरे ख्वाबों में
याद है सिर्फ़ उसकी धुँधली सी बातें
जो कानों में आज भी कम्पन करती है
उसकी धुँधली सी
छवि मेरी सूखी आँखों में
नमी का काम करती रहती है,
पतझड़ सी मैं, बंजर सा दिल मेरा
यूँ ही जागकर उसकी रोज़ 

राह देखता करता है अब भी,
पर लगता है अन्दर ही अन्दर 

कुछ खत्म हो रहा
मानों खुद से ही खुद को

 दूर करने में लगी हुई हूँ,
हरारत है तो आज भी सिर्फ़ उसकी ही!!!



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