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Tuesday, 31 May 2016

शायद हां, शायद ना...

वो अजीब है...
कभी करीब है
कभी नसीब है
मिलेगा कभी या सिमटकर रह जायेगा
शायद हां, शायद ना
ख्व़ाबों में आता है,
कहता है मगर कभी कभी,
शायद खामोशी पसंद है उसे
चेहरे पर मुस्कुराहट सजाकर रखता है,

रोज़ देखती हूँ उसे
वो देखता है या नहीं
शायद हां, शायद ना
वक्त ने मिलने से पहले ही दूर कर दिया,
समझाने से पहले ही समझा दिया,
जानता है, या जानना चाहता है
शायद हां, शायद ना

दफ्ऩ है ख्वाहिशें उसकी या मेरी
या फिर हम दोनों की
शायद हां, शायद ना
लफ्ज़ हवाओं जैसे है मेरे भी
कभी ठंडक, कभी गर्माहट देते है
क्या तुम हवा बन सकते हो
शायद हां, शायद ना....




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