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Tuesday, 31 May 2016

बोलूँ कुछ... !!

बोलूँ कुछ...!!!
सुनोंगे मगर समझोंगे नहीं
भावनायें क्या
ये लहरें है
जो कभी उठती है, 
कभी ठहरती है
कभी पिंज़रे में बंद
पंक्षी सी फड़फड़ाती है
तो कभी पिंज़रे में ही
 इठलाती भी है

प्यार क्या !
इसके लिये एक लफ्ज़ कहो या हज़ार 
फिर भी ना जाने कम ही लगता है

नफ़रत क्या..! 
इसकी खासियत कहो 
या ख़ामी
ये जहां में एक ही से हो सकती है
इसका हक़दार हर कोई नहीं

दोस्ती क्या.. !
विश्वास की डोर कमज़ोर हो सकती है 
मग़र टूट नहीं सकती,
दोस्त ज़्यादा हो सकते है
मगर दोस्ती कुछ से ही
जिनसें शिकायत भी शिक़वे भी

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