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Tuesday 19 January 2016

बचपन में बचपन के खेल

 
आज हमारी चाहत अपने खेल में बिज़ी थी, बहुत सारे बेजुबाऩ दोस्त कुछ गाड़िया टैडी जिनके बड़े ही प्यारे नाम दे रखे थे जैसे सिक्की, जूजू, पूहू, टकलू, टाईगर.... वो तो अपने में मस्त हो गई, लेकिन हम तो फ्लैशबैक में चले गये थे... । जहां हमारा खेलने का अंदाज ही अलग था, जिसमें हम अपने भाई लाले जैनू सहदेव, और बहनें आभा दी, गरिमा दी सुमित भईया लोगों के साथ खेला करते थे गिल्ली डंडा, आह ! कितना मज़ा आता था, लेकिन हमारी मां इस खेल को खेलने के लिये हमेशा मना करती थी, क्यूंकि गिल्ली किसी की आंख में ना लग जाये। 

 खैर मां तो मां होती है जो हमेशा केयर ही करती है,  इसके बाद याद आया कि जब बड़े ताऊ जी की फैमिली आया करती थी तो पापा लोग और हम बच्चे क्रिकेट मैच खेला करते थे, और अपने बड़प्पन के चलते हमकों अंपायर बना दिया करते थे।  जिसमें ये लोग तो खूब चौके छक्के बाॅलिंग कर लिया करते थे और हम शुरू से लेकर आखिरी तक बस खड़े ही रहते, बस अपनी बाॅडी लैंग्वेज से आउट, नाॅट आउट, नो बाॅल,बाईड बाॅल बता दिया करते। 

 पापा बता दिया करते  पर बड़ा बोरिंग था, पापा बोलते की छोटू बेटा सबसे अच्छा काम ये अंपायर का ही होता है बस फिर क्या!!! ये बड़े लोग भी ना, हिहिहिहि.. एक और खेल याद आ रहा आतंकवाद और शहीद... जिसमें आभा दी आर्मी आॅफिसर और हम गरिमा दी लाले भईया सिपाही बनते थे ।  जिसमें जैनू आतंकवादी बनता था!!!! फिर लड़ते और रेखा जी की मशहूर फिल्म का मशहूर गाना गाकर फूल कभी बन जाये अंगारा.. हम सिपाही लोग शहीद हो जाते, फिर सबका बदला हमारी आर्मी आॅफिसर लिया करती थी.... हाय ये बचपन!!!!! 

कितनी जल्दी गुजर गया, हम सब कब बड़े हो गये पता ही नहीं चला..... आज के बच्चों के खेल और हमारे बचपन के खेल में कितना बड़ा अन्तर आ चुका है, पहले कहां बच्चे एक समूह में खेला करते थे और आज के बच्चे प्लास्टिक के खिलौने के साथ खेलकर खुद को एंटरटेन कर रहे है। 

 विभा परमार

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