Search This Blog

Friday, 29 June 2018

अपंगता

अपंगता!
हां वाकई
प्रेम में अपंगता सा महसूस होता है
मानों सबकुछ सन्नाटों में तब्दील हो चुका हो
मैं अब  किसी बैसाखी पर सवार हूं
जो कब तक साथ रहेगी
ये ख़बर ना उसको है और ना ही
हमको
धीरे धीर सब नष्ट हो रहा है
धीरे धीरे रिसाव हो रहा है
खुद का
अस्थिरता की नरमी
और
स्थिरता  की गर्मी
दोनों ही  रास नहीं आती

मैं डूबना चाहती हूं खुद में
इतना कि
तेरे ज़िक्र से भी
मैं बेचैन ना हो जाऊं!
तेरे होने से भी मैं आहत ना हो जाऊं

मगर कुछ अपंगताएं
प्रेम में अपंगताएं
मेरे आगे बढ़ने पर रोक लगा देती है
ना ये खुद में डूबने देती है
और ना ही तुझमें
क्षण क्षण चूर चूर होना
क्षण क्षण ठगाई सा लगना
मुझे रात रात को सोने नहीं देती
बस भूल भूल कर
किसी  तिलिस्म का इन्तज़ार रहता है!

विभा परमार "विधा"